९६ * पुराणं परमं पुण्यं भविष्य सर्वसौख्यदम् «
परैतु जितने त्रत-दान आदि बताये गये हैं, वे सन आचारयुक्त व्यर्थ है । आचार ही धर्म और कुलक मूल है-- जिन पुरुयोमे
पुरुषके सफल होते है । आचारहीन पुरुषे वेद पवित्र ही आचार होता है वे ही सत्पुरुव कहते है । सत्पुरुषोंका जो
करते, चाहे उसने छहों अङ्गोसहित क्यो न पढ़ा हो। जिस भांति आचरण है, उसीका नाम सदाचार है। ओ पुरुष अपना
पंख जमनेपर पक्षियोंके बच्चे घौसखेको छोड़कर उड़ जति है, कल्याण चाहे उसे अवश्य ही सदाचारी होना चाहिये ।
उसी भाँति आचारहीन पुरुषको वेद भी मृत्युके समय त्याग देते अविष्यपुराणमें इन्हीं सब विषयोंका प्रतिपादन बड़े
हैं । जैसे अशुद्ध पत्रमे जल अथवा श्रानके चर्ममें दुग्ध रहनेसे समारोहसे सम्पन्न हुआ है। पाठकोंकी सुवरिधाके लिये
अपवित्र हो जाता है, उसी प्रकार आचारहीनमें स्थित दाख भी पुराणका एक विहड्जमावल्त्रेकन यहाँ त्रस्तुत किया गया है।
--*9-- --राधेहयाम खेमका
अक्ष्युपनिषद्
( नेत्ररोगहारी विद्या )
हरि: ॐ । अथ हे सक्ूतिभंगवानादित्यस्मेके जगाम । स आदित्यै नत्वा चक्षुष्पतीविद्याया तमस्तुवत् । ॐ नमो भगवते
श्ीसूर्यायाक्ितेजसे नम: । ॐ खेचराय नम: । ॐ> महासेनाय नमः । ॐ तमसे नमः । ॐ रजसे नमः । ॐ सत्त्वाय नमः ।
ॐ> असतो मा सद् गमय । तपसो सा ज्योतिर्गपय । मृत्योर्माऽपृतं गमय । हंसो भगवाउ्कुलिरूप: अप्रतिरूप: । विश्वरूपं
घृणिं जातवेदसं हिरण्मयं उ्पोतीरूप तप्तम् । सहस्रिः सतघा वर्तमानः पुरः प्रजानामुदयत्येष सूर्य: । ॐ» नमो भगवते
श्रीसूर्यायादित्यायाकषिेजसेऽहोऽवाहिनि वाहिनि स्वाहेति ।
एवं चशुष्पतीकिद्यया स्तुतः श्रीसूर्यनारायणाः सुतरीतोऽऋवीखशुष्पतीविद्यौ ब्राह्मणो यो नित्यमधीते न तस्पाक्षिरोगो
भवति । न तस्य कुलेऽन्धो भवति । अषौ ब्राह्मणान् ग्राहयित्वा विद्यासिद्धिर्भवति। य एवं केद स महान् भवति ।
एक समय भगवान् साद्भूति आदित्यलकमें गये। वहाँ सूर्यनारायणको प्रणाम करके उन्होंने चश्ुषपती विद्याके द्वारा उनकी
स्तुति की। चक्मु-इन्द्रियके प्रकाशक भगवान् श्रीसूर्यगागयणको नमस्कार है। आकाशमें विचरण करनेवाले सूर्यनाणयणको
नमस्कार है। महासेन ( सहसखरों किरणोंकी भारी सेनावाले ) भगवान् श्रीसूर्यनारायणको नमस्कार है। तमोगुणरूपमें भगवान्
सूर्यनारयणको नमस्कार है । स्जोगुणरूपमें भगवान् सूर्यनारायणको नमस्कार है। सत्त्वगुणरूपमें भगवान् सूर्यनारायणको नमस्कार
है। भगवन् ! आप मुझे असत्से सत्क ओर ले चलिये, मुझे अन्धकारसे प्रकापाकी ओर ले चलिये, मुझे मृत्युसे अमृतकी
ओर के चलिये। भगवान् सूर्य झुचिरूप हैं और वे अप्रतिरूप भी रै--उनके रूपकी कहीं भी तुलना नहीं है। जो अखिल
रूपॉको घारण कर रहे हैं तथा रदिममालाओसे मण्डित हैं, उन जातवेदा ( सर्वज्ञ, अग्रिस्वरूप ) स्वर्णसदृद्ा प्रकाशवाले
ज्योतिःस्वरूप और तपनेवाले ( भगवान् भास्करको हम स्मरण करते है । ) ये सहस्नों किरणोंवाले और झत-कझत प्रकारसे
सुझोभित भगवान् सूर्यनारायण समस्त प्राणियोकि समक्ष ( उनकी धत्ईके लिये ) उदित हो रहे हैं। जो हमारे नेत्रोंकि प्रकाता
हैं, उन अदितिनन्दन भगवान् श्रीसूर्यको नमस्कार है। दिनका भार वहन करनेवाले विश्ववाहक सूर्यदेकके प्रति हमारा सब कुछ
सादर समर्पित है।
इस प्रकार चश्षुष्पतीविद्याके द्वारा स्तुति किये जानेपर भगवान् सूर्यनाणयण अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले--'जो ब्राह्मण इस
चश्ुष्मतीविद्याका नित्य पाठ करता है, उसे आँखका रोग नहीं होता, उसके कुलमें कोई अंधा नहीं होता। आठ ब्राह्मणोंको इसका
ग्रहण करा देनेपर इस विद्याकी सिद्धि होती है। जो इस प्रकार जानता है, वह महान् हो जाता है ।
पावकः कार्तिकेयोइसो कार्तिकेयों विताथकः । गौरी लक्ष्मीक्ष सावित्री झक्तिभेदा: प्रकीर्तिताः ॥
देवै दवौ समुद्दिश्य यः करोति बत॑ ऋ:॥न भेदस्तत्र मन्तव्यः शिवशक्तिमयं गत् ॥ (उत्तरपर्व २०५। ११--६१३)