रावणको युद्धमें अपने बाणोंकी मारसे जर्जरित | देनेवाले उस वीरको युद्धमें मार गिराया। पुत्रकौ
कर डाला। इससे दुःखित होकर रावणने कुम्भकर्णको
सोतेसे जगाया। जागनेपर कुम्भकर्णने हजार घड़े
मदिरा पीकर कितने ही भैंस आदि पशुओंका
भक्षण किया। फिर रावणसे कुम्भकर्ण बोला-
"सीताका हरण करके तुमने पाप किया है। तुम
मेरे बड़े भाई हो, इसीलिये तुम्हारे कहनेसे युद्ध
करने जाता हूँ। मैं बानरॉसहित रामको मार
डालूँगा'॥ ९--१२॥
ऐसा कहकर कुम्भकर्णने समस्त वानरोंको
कुचलना आरम्भ किया। एक बार उसने सुग्रीवको
पकड़ लिया, तब सुग्रीवने उसको नाक और
कान काट लिये। नाक और कानसे रहित होकर
वह बानरोंका भक्षण करने लगा। यह देख
श्रीरामचन्द्रजीने अपने बाणोंसे कुम्भकर्णकी दोनों
भुजाएँ काट डालीं। इसके बाद उसके दोनों पैर
तथा मस्तक काटकर उसे पृथ्वीपर गिरा दिया।
तदनन्तर कुम्भ, निकुम्भ, राक्षस मकराक्ष, महोदर,
महापार्थ, मत्त, राक्षसश्रेष्ठ उन्मत्त, प्रघस, भासकर्ण,
विरूपाक्ष, देवान्तक, नरन्तक, त्रिशिरा और
अतिकाय युद्धे कूद पडे । तब इनको तथा और
भी बहुत-से युद्धपरायण राक्षसोंको श्रीराम, लक्ष्मण,
विभीषण एवं वानरोने पृथ्वीपर सुला दिया।
तत्पश्चात् इन्द्रजित् (मेघनाद) -ने मायासे युद्ध
करते हुए वरदानमें प्राप्त हुए नागपाशद्वारा श्रीराम
और लक्ष्मणको बाँध लिया। उस समय हनुमानूजीके
द्वारा लाये हुए पर्वतपर उगी हुई “विशल्या'
नामकी ओषधिसे श्रीराम और लक्ष्मणके घाव
अच्छे हुए। उनके शरीरसे बाण निकाल दिये गये।
हनुमानजी पर्वतकों जहाँसे लाये थे, वहीं उसे
पुनः रख आये। इधर मेघनाद निकुम्भिलादेवीके
मन्दिरमे होम आदि करने लगा। उस समय
लक्ष्मणने अपने बाणोंसे इन्द्रको भी परास्त कर
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मृत्युका समाचार पाकर रावण शोकसे संतप्त हो
उठा और सीताको मार डालनेके लिये उद्यत हो
उठा; किंतु अविन्ध्यके मना करनेसे वह मान गया
और रथपर बैठकर सेनासहित युद्धभूमिमें गया।
तब इन्द्रके आदेशसे मातलिने आकर श्रीरघुनाथजीको
भी देवराज इन्द्रके रथपर विठाया ॥ १३--२२॥
श्रीराम और रावणका युद्ध श्रीराम और
रावणके युद्धके ही समान था--उसकी कहीं भी
दूसरी कोई उपमा नहीं थी। रावण वानरोपर प्रहार
करता था और हनुमान् आदि वानर रावणको
चोट पहुँचाते थे । जैसे मेष पानी बरसाता है, उसी
प्रकार श्रीरघुनाधजीने रावणके ऊपर अस्त्र-शस्त्रौकौ
वर्षा आरम्भ कर दी । उन्होंने रावणके रथ, ध्वज,
अश्च, सारथि, धनुष, बाहु ओर मस्तक काट
डाले। काटे हुए मस्तकोके स्थानपर दूसरे नये
मस्तक उत्पन्न हो जाते थे। यह देखकर
श्रीरामचन्द्रजीने ब्रह्म॒स्त्रके द्वारा रावणका वक्षःस्थल
विदीर्ण करके उसे रणभूमिमें गिरा दिया। उस
समय [मरनेसे बचे हुए सब] राक्षसोंके साथ
रावणकी अनाथा स्त्रियाँ विलाप करने लगीं। तब
श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञासे विभीषणने उन सबको
सान्त्वना दे, राबणके शवका दाह - संस्कार किया।
तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीने हनुमान्जीके द्वारा
सौताजोको बुलवाया। यद्यपि वे स्वरूपसे ही
नित्य शुद्ध थीं, तो भी उन्होने अग्निमें प्रवेश
करके अपनी विशुद्धताका परिचय दिवा । तत्पश्चात्
रघुनाथजीने उन्हें स्वीकार किया। इसके बाद
इन्द्रादि देवताओनि उनका स्तवनं किया। फिर
ब्रह्माजी तथा स्वर्गवासी महाराज दशरथने आकर
स्तुति करते हुए कहा -- श्रीराम! तुम राक्षसोंका
संहार करनेवाले साक्षात् श्रीविष्णु हो।' फिर
श्रीरामके अनुरोधसे इन्द्रन अमृत बरसाकर मरे