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पञ्च्विजलोऽध्यायः २५.५

१४३१. पृषदश्वा मरूतः पृश्निमातरः शुभंयावानो विदथेषु जग्मय:। अग्निजिह्वा मनवे

सूरचक्चसो विश्च नो देवाऽ अवसागमन्निह ॥२० ॥

शक्तिशाली अश्वो वाले अर्थात्‌ तीव्र गति से चलने वाले, अदिति के पुत्र सबका कल्याण करने वाले, अग्नि

रूपी जिड्डा तथा सूर्यरूपी नेत्र वाते, सर्वज्ञ मरत्देवता अपनी विभिन्न शक्तियों के साथ इस यज्ञशाला में पधार

और हमें सुखी बनाएँ ॥२० ॥ ॥

१४३२. भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजन्ना:। स्थिररङ्गसतु्टवा २

सस्तनृभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः ॥२१॥ ॥

याजकों के पोषक हे देवताओ ! हम सदैव कल्याणकारी वचनं को ही अपने कानों से सु नेत्रों से सदैव

कल्याणकारी दृश्य ही देखें । हे देव ! परिपुष्ट अंगों से युक्त सुदृढ़ शरीर वाले हम आपकी वन्दना करते हुए पूर्ण

आयु तक जीवित रहें ॥२१ ॥

१४३३. सिव नि देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम्‌ । पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति

मानो मध्या ८॥२२॥

हे विश्व के स्वामी ! (हम याजकगण) पुत्र-पौत्रों से युक्त वृद्धावस्था होने तक, सौ वर्ष तक का पूर्णं जीवन

सुखपूर्वक जिएँ । जीवन के मध्य में हम कभी मृत्यु को प्राप्त न न हों ॥२२ ॥

१४३४. अदितिद्यौरिदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्र । विश्वे देवा$ अदितिः पञ्च

जनाऽ अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम्‌ ॥२३ ॥

पृथ्वी, अन्तरिक्च एवं चुलोक अखण्डित व अविनाशी हैं । जगत्‌ का उत्पादक परमात्मा एवं उसके द्वारा उत्पन्न

यह जीव-जगत्‌ भी कभी नष्ट न होने वाला है । विश्व की समस्त देव-शक्तियाँ, अविनाशी हैं । समाज के पाचों वर्ग

(ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्व, शुद्र एवं निषाद) तथा पत्नतत्त्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) से विनिर्मित यह सृष्टि

अविनाशी है । जो कुछ उत्पन्न हो चुका अथवा जो कुछ उत्पन्न होने वाला है, वह भी अपने कारणरूप से कभी

नष्ट नहीं होता है ॥२३ ॥

१४३५. मा नो भित्रो वरुणो अर्यपायुरिच: ऋभुक्षा मरुतः परि ख्यन्‌। यद्वाजिनो

देवजातस्य सप्ते प्रवक्ष्यामो विदथे ॥२४॥

हम याजकगण यज्ञशाला में, दिव्यगुण सम्पन्न, गतिमान्‌, पराक्रमी, वाजी (बलशाली) देवताओं के ही ऐश्वर्य

का गान करते है । अतः मित्र, वरुण, अर्यमा, आयु, कभुक्ष, मरुद्गण, इन्द्र आदि देवता हमारी उपेक्षा करते हुए

हमसे विमुख न हों (वरन्‌ अनुकूल रहें ) ॥२४ ॥

[वहाँ काजी का अर्थ घोड़ा न करके उसे बलशाली देवों का पर्याय पाना गया है। आचार्य उवट एवं पहीयर ने भी अपने

प्राच्य में अश्र के नाम से देवों की ही स्तुति का भाव स्पष्ट किया है |

१४३६. यन्निर्णिजा रेक्णसा प्रावृतस्य रातिं गृभीतां मुखतो नयन्ति। सुप्राइजो

मेम्यद्विश्ररूप 5 इन्द्रापूष्णोः प्रियमप्येति पाथः ॥२५ ॥

पिछले पंत्र में देवशक्तियों के लिए आश संज्ञक संबोधन दिया गया है। नीचे के तीन मंत्रों में थी जहाँ समर्थ

देवशक्तियों के लिए अश्च संक सम्जोधन है, यहीं निरीह जीव आत्माओं को 'अज' (बकरा) कहा गया है । देकं की पृष्ट

के लिए किये गए यज्ञ का लाभ प्रकृति ये संष्याप्त समर्थ शक्तियों के साथ-साथ सामान्य जीवों से सम्बद्ध वेतस को भी

प्राप्त होता है, यह भाव यहाँ अधीष्ट है-- |

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