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गयी, क्रीड़ाके आगे खड़ी है। इस महाभागा सतीपर

परहार करो ।'

कामदेव बोला--सहख्ल्लेचन ! लीला और

चातुरीसे युक्त अपने दिव्य रूपको प्रकट कीजिये,

जिसका आश्रय लेकर मैं इसके ऊपर अपने पाँचों

बाणोंका पृथक्‌-पृथक्‌ प्रहार. करू । त्रिद्ुकधारी

महादेवने मेरे रूपको पहले ही हर लिया । मेरा कारीर है

ही नीं । जब मैं किसी नारीको अपने बार्णोका निज्ञाना

बनाना चाहता हूँ, उस समय पुरुष-दारीरका आश्रय

लेकर अपने रूपको प्रकट करता हूँ। इसी तरह पुरुषपर

प्रहार करनेके लिये मैं नारी-देहका आश्रय लेता हूँ।

पुरुष जब पहले-पहल किसी सुन्दरी नारीको देखकर

बारम्बार उसीका चिन्तन करने लगता है, तब मैं चुपकेसे

उसके भीतर घुसकर उसे उन्मत्त बना देता हूँ। स्मरण--

चिन्तनसे मेरा प्रादुर्भाव होता है; इसीलिये मेरा नाम

'स्पर' हो गया है। आज मैं आपके रूपका आश्रय लेकर

इस नारीको अपनी इच्छाके अनुसार नचाऊँगा।

यों कहकर कामदेव इन्दरके शरीरमें घुल गया

और पुण्यमयी कृकल-पत्री सती सुकल्लकों घायरू

करनेके लिये हाथमें याण ले उत्कण्ठापूर्वक अवसरकी

प्रतीक्षा करने रगा । वह उसके नेत्रोंको ही लक्ष्य

बनाये बैठा था।

भगवान्‌ श्रीविष्णु कहते हैं--राजन्‌ ! क्रीड़ाकी

प्रेरणासे उस सुन्दर वनम गयी हुई लैज््यपत्नी सुकलाने

पूछा--“सखी ! यह मनोरम दिव्य जन किसका है ?'

क्रीड़ा खोली--यह स्वभावसिद्ध दिव्य गुणोंसे

युक्त सारा वन कामदेवका है, तुम भलीभाँति इसका

निरीक्षण करो।

दुरात्पा कामकी यह चेष्टा देखकर सुन्दरी सुकलाने

वायुके द्वारा स्य हुई वहाँके फूलॉकी सुगन्धक्े नहीं

ग्रहण किया। उस सतीने वहाँके रसोंका भी आस्वादन

नहीं किया। यह देख कामदेवका मित्र वसन्त बहुत

लूज्जित हुमा तत्पथ्चात्‌ कामदेवकी पत्नी रति-प्रीतिको

साथ लेकर आयी और सुकल्मसे हँसकर बोली--

भद्रे ! तुम्हारा कल्याण हो, मैं तुम्हारा स्वागत करती हूँ।

तुम रति और प्रीतिके साथ यहाँ रमण करो ।' सुकलाने

कहा--'जहाँ मेरे स्वामी हैं, वहीं मैं भी हूँ। मैं सदा

पतिके साथ रहती हूँ। मेरा काम, मेरी प्रीति सब वहीं है ।

यह शारीर तो निराश्रय है---छायामात्र है।' यह सुनकर

रति और प्रीति दोनों लच्नित हो गयीं तथा महाबली

कामके पास जाकर बोलीं -- ` महाप्राज्ञ ! अब आप

अपना पुरुषार्थ छोड़ दीजिये, इस नारीको जीतना कठिन

है। यह महाभागा पतित्रता सदैव अपने पतिकी हो

कामना रखती है।'

कामदेवने कहा--देवि ! जब यह इन्द्रके रूपको

देखेगी, उस समय मै अवदय इसे घायल करूँगा।

तदनन्तर देवराज इन्द्र परम सुन्दर दिव्य वेष धारण

किये रतिके पोछे-पीछे चले; उनको गतिमे अत्यन्त

ललित विकास दृष्टिगोचर होता था। सब प्रकारके

आभूषण उनकी ज्ञोभा बढ़ा रहे थे। दिव्य सारतर, दिव्य

वस्र और दिव्य गन्धसे सुसज्जित हो वे पतित्रता

सुकल््रके पास आये और उससे इस प्रकार बोले--

"भद्रे । मैंने पहले तुम्हारे सामने दूती भेजी थीं, फिर

प्रीतिको रवाना किया। मेरी प्रार्थना क्यो नहीं मानती ? मैं

स्वये तुम्हारे पास आया हूँ, मुझे स्वीकार करो ।'

सुकला खोस्णी- मेरे स्वामीके महात्मा पुत्र

(सत्य, धर्म आदि) पेरी रक्षा कर रहे है । मुझे किसीका

भय नहीं है । अनेक शुरवीर पुरुष सर्वत्र मेरी रक्षाके

लिये उद्यत रहते है । जबतक मेरे नेत्र खुले रहते हैं,

तबतक मैं निरन्तर पतिके हो कार्यम रगी रहती हं । आप

कौन है, जो मृत्युका भो भय छोड़कर मेरे पास आये है ?

इन्द्रे कहा-- तुमने अपने स्वामीके जिन शूरवीर

पुत्रोंकी चर्चा क है, उन्हें मेरे सामने प्रकट करो ! पै कैसे

उन्हें देख सकूँगा।

सुकलका खोली--इच्धिय-संयमके . विभिन्न

गुणोंद्वारा उत्तम धर्म सदा मेरी रक्षा करता है। वह देखो,

शान्ति और क्षमाके साथ सत्य मेरे सामने उपस्थित है।

महाबल्लझी सत्य बड़ा यशास्वी है। यह कभी मेरा त्याग

नहीं करता। इस प्रकार धर्म आदि रक्षक सदा मेरी

देख-भाल किया करते हैं; फिर क्‍यों आप बलपूर्वक मुझे

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