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अर्धवामेश तो दिनपति ही होगा और बादके

अर्धयामोंके स्वामी छः संख्यावाले ग्रह होंगे। इसी

आधारपर रविवारसे लेकर शनिवारतकके अर्धयामोंके

स्वामी नीचे चक्रमे दिये जा रहे है"

शनि, सूर्य तथा राहुकों यलसे पीठ पीछे

करके जो संग्राम करता है, वह सैन्यसमुदायपर

विजय प्राप्त करता है तथा जूआ, मार्ग और युद्धमें बृहस्पतिवारको षष्ठी, शुक्रवारको द्वितीया, शनिवारको

सफल होता है॥ ११-१२॥

(नक्षत्रोंकी स्थिरादि संज्ञा तथा उसका प्रयोजन

कहते रै - ) रोहिणी, तीनों उत्तराएँ, मृगशिरा--

इन पाँच नक्षत्रोंकी 'स्थिर' संज्ञा है। अश्विनी,

रेवती, स्वाती, धनिष्ठा. शतभिषा-इन पाँचों

नक्षत्रोंकी "क्षिप्र" संज्ञा है। इनमें यात्रार्थीको यात्रा

करनी चाहिये! अनुराधा, हस्त, मूल, मृगशिरा,

पुष्य, पुनर्वसु --इनमें प्रत्येक कार्य हो सकता है।

ज्येष्ठा, चित्रा, विशाखा, तीनों पूर्वाएँ, कृत्तिका,

भरणी, मघा, आद्रा, आश्लेषा--इनकी ' दारुण

संज्ञा है । स्थिर कार्योमें स्थिर संज्ञावाले नक्षत्रोंको

लेना चाहिये। यात्रामें "क्षिप्र" संज्ञक नक्षत्र उत्तम

माने गये है । "मृदु" संज्ञक नक्षत्रम सौभाग्यका

काम तथा "उग्र" संक नक्षत्रोंमें उग्र काम करना

चाहिये। ' दारुण" संज्ञक नक्षत्र दारूण (भयानक)

कामके लिये उपयुक्त होते टँ ॥ १३--१६१॥

(अब अधोमुख, तिर्यङ्मुख आदि नक्षत्रोका

नाम तथा प्रयोजन कहता हूँ--) कृत्तिका, भरणी

आश्लेषा, विशाखा, मघा, मूल, तीनों पूर्वां -ये

अधोमुख नक्षत्र हैं। इने अधोमुख कर्म करना

चाहिये। उदाहरणार्थ कूप, तडाग, विद्याकर्म,

चिकित्सा, स्थापन, नौका- निर्माण, कूपोका विधान,

गड्ढा खोदना आदि कार्य इन्हीं अधोमुख नक्षत्रोंमें

करना चाहिये। रेवती, अश्विनी, चित्रा, हस्त,

स्वाती, पुनर्वसु, अनुराधा, मृगशिरा, ज्येष्टा-ये

नौ नक्षत्र तिर्यड्मुख हँ । इनमें राज्याभिषेक, हाथी

तथा चोडेको पट्टा बाँधना, बाग लगाना, गृह तथा

प्रासादका निर्माण, प्राकार बनाना, क्षेत्र, तोरण,

ध्वजा, पताका लगाना--इन सभी कार्यको करना

चाहिये । रविवारको द्वादशी, सोमवारको एकादशी,

मङ्गलवारको दशमी, बरुधवारको तृतीया,

सप्तमी हो तो ' दग्धयोग" होता टै ॥ १७--२३॥

(अब त्रिपुष्कर योग बतलाते हैं--) द्वितीया,

द्वादशी, सप्तमी - तीन तिथियाँ तथा रवि, मङ्गल,

शनि-तीन वार-ये छः ।त्रिपुष्कर' हैं तथा

विशाखा, कृत्तिका, दोनों उत्तराएँ, पुनर्वसु,

पूर्वाभाद्रपदा--ये छः नक्षत्र भी “त्रिपुष्कर' है।

अर्थात्‌ रवि, शनि, मङ्गलवारोे द्वितीया, सप्तमी,

द्वादशीमेंसे कोई तिथि हो तथा उपर्युक्त नक्षत्रोंमेंसे

कोई नक्षत्र हो तो “त्रिपुष्कर-योग' होता है।

त्रिपुष्कर योगमें लाभ, हानि, विजय, वृद्धि,

पुत्रजन्म, वस्तुओंका नष्ट एवं विनष्ट होना-ये

सब त्रिगुणित हो जाते हैँ ॥ २४-२६॥

(अब नक्षत्रोंकी स्वक्ष, मध्याक्ष, मन्दाक्ष और

अन्धाक्ष संज्ञा तथा प्रयोजन कहते हैं--) अधिनी,

भरणी, आश्लेषा, पुष्य, स्वाती, विशाखा, श्रवण,

पुनर्वसु -ये दृढ़ नेत्रवाले नक्षत्र हैं और दसों

* प्रत्येक दिनक अर्धयामेश- संख्या आट है तथा दिवपति रचिसे लेकर ज्ञगितक सात ही है । अतः आठवें अर्धयामको ग्रन्यान्तरॉमें

*निरीक्ष' चाना गया है । जैसे--

रविवारादिशन्यन्तं

गुलिकादिर्विरूप्यते। अष्टमांशो निरीशः स्याच्छन्यंशो गुलिकः स्मृतः ॥

कितु यहाँ अग्निपुराणमें प्रतिदिने राहुको अष्टमांशका स्वामी मान रहे हैं--यह विशेष बात हि ।

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