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* पुराणै परमं पुण्य भविष्यं सर्वसौख्यदम् +
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडू
योजन है। नौकाकी तरह यह भूमि जलपर तैर रही है। इसके
चरो ओर व्लेकालोक-पर्वत हैं। नैमित्तिक, प्रकृत, आत्यन्तिक
और नित्य--ये चार प्रकारके प्रलय हैं। जिससे इस संसारकी
उत्पत्ति होती है। प्रलयके समय उसीमें इसका लय हो जाता
है। जिस प्रकार ऋतुके अनुकूल वृक्षोके पुष्प, फल और फूल
उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार संसार भी अपने समयसे उत्पन्न
होता है और अपने समयते लीन होता है। सम्पूर्ण विधके लीन
होनेके बाट् महेश्वर वेद-शाब्दोकि द्वारा पुनः इसका निर्माण करते
हैं। हिस, अरस, मृद्, क्रूर, धर्म, अधर्म, सत्य, असत्य
आदि कर्मे जीव अनेक योनियोंको इस संसारपे प्राप्त करते
हैं। भूमि जलसे, जल तेजसे, तेज यायुसे, वायु आकादासे
वेष्टित है। आकाश अहेकारसे, अहंकार महत्तत्त्वसे, महत्त्व
परकृतिसे और प्रकृति उस अविनाश पुरुषसे परिव्याप्त है। इस
प्रकारके हजारों अण्ड उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं। सुर,
नर, किन्नर, नाग, यक्ष तथा सिद्ध आदिसे समन्वित चराचर-
जगत् नागयणकी कुक्षिमें अवस्थित है। निर्मल-बुद्धि तथा
शुद्ध अन्तःकरणवाले मुनिगण इसके ऋह्म और आध्यन्तर-
स्वकूपको देखते हैं अथवा परमात्माकी माया हौ उन्हें
जानती है।
(अध्याय २)
नारदजीको विष्णु-मायाका दर्शन
राजा युधिष्ठिरने पृषछा-- भगवन् ! यह किष्णु-
भगवान्की माया किस प्रकारकी है ? जो इस चराचर-जगत््को
व्यामोहित करती है।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा--महाराज ! किसी समय
नारदमुनि श्रेतद्वीपमें नारायणका दर्शन करनेके लिये गये। वहाँ
श्रीनारयणका दर्शन कर और उन्हे प्रसन्न-मुद्रामें देखकर उनसे
जिज्ञासा की। भगवन् ! आपकी माया कैसी है ? कहाँ रहती
है ? कृपाकर उसका रूप मुझे दिखायें।
भगवानने हँसकर कहा--नारद ! मायाको देखकर
क्या करोगे ? इसके अतिरिक्त जो कुछ चाहते हो वह माँगो।
नारदजीने कहा-- भगवन् ! आप अपनी मायाको ही
दिखायें, अन्य किसी चरकी अभिल्मषा नहीं है। नारदजीने
बार-बार आग्रह किया।
नारायणने कहा--अच्छा, आप हमारी माया देखें।
यह कहकर नारदकी अगुली पकड़कर श्वेतद्रीपसे चले। मार्गं
आकर भगवानने एक वृद्ध ब्राह्मणका रूप धारण कर सिया ।
शिखा, यज्ञोपवीत, कमष्डलु, मृगचर्मको धारण कर कुशाकी
पवित्री हाथोंमें पहनकर वेद-पाठ करने लगे और अपना नाम
उन्होंने यज्ञशार्मा रख लिया। इस प्रकारका रूप घारणकर
नारदके साथ जम्युद्रीपमें आये। ये दोनों वेत्रवती नदीके तटपर
स्थिते विदिज्ञा नामक नगरीमें गये। उस विदिज्ञा नगरीमें
धन-धान्यसे समृद्ध उद्यमी, गाय, भैंस, बकरी आदि पशु-
पालनमें तत्पर, कृषिक्र्यको भलीभांति करनेवाला सीरभद्र
नामका एक बैज्य निवास करता था। वे दोनों सर्वप्रथम
उसीके घर गये। उसने इन विशुद्ध ग्राह्मणोंका आसन, अर्य
आदिसे आदर-सत्कार किया | फिर पूछा--'यदि आप उचित
समझें तो अपनी रुचिके अनुसार मेरे यहाँ अन्नका भोजन
करें।' यह सुनकर वृद्ध ब्राह्मणरूपधारी भगवानने हैसकर
कहा--'तुमकों अनेक पुत्र-पौत्र हों और सभी व्यापार एवं
खेतीमें तत्पर रहें। तुम्हारी खेती और पशु-धनकी नित्य वृद्धि
हो'--यह मेय आज्ञीर्वाद है। इतना कहकर वे दोनों वहसि
आगे गये। मार्गमे गङ्गाके तटपर वेणिका नामके गेवे
गोस्वामी नामका एक दरिद्र ब्राह्मण रहता था, वे दोनों उसके
पास पहुँचे। वह अपनी खेतीकी चित्तामें लगा था। भगबानने
उससे कहा--'हम बहुत दूरसे आये हैं, अब हम तुम्हारे
अतिधि हैं, हम भूखे हैं, हमें भोजन कराओ।' उन दोरनोको
साथमें लेकर वह ब्राह्मण अपने घरपर आया। उसने दोनौको
खान-भोजन आदि कराया, अनन्तर सुखपूर्वक उत्तम दाय्यापर
शयन आदिकी व्यवस्था की। प्रातः उठकर भगवानने
ब्राह्मणसे कहा--“हम तुम्हारे घरमे सुखपूर्वक रहे, अब जा रहे
है । परमेश्वर करे कि तुम्हारी खेती निष्फल हो, तुम्हारी संततिकी
युद्धि न हो'---इतना कहकर ये वहासि चले गये।
मार्गमें नारदजीने पूछा--भगवन् ! वैश्ये आपकी
कुछ भी सेवा नहीं की, किंतु उसको आपने उत्तम वर दिया ।
इस ब्राह्मणने श्रद्धासे आपकी बहुत सेवा की, किंतु उसको
आपने आदोर्वादके रूपमे ज्ञाप ही दिया--ऐसा आपने