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षष्ठ अंश

४५९

यस्तं नतोऽस्मि पुरुषोत्तममीशमीड्यम्‌ ॥। ६०

तस्यैव योऽनु गुणभुग्बहुधैक

शुद्धो5प्यशुद्ध इब भाति हि मूर्तिभेदे: ।

ज्ञानान्वितः सकलसत्त्वविभूतिकर्ता

तस्मै नमोऽस्तु पुरुषाय सदाव्ययाय ॥ ६९

वन्दे स्वरूपभवनाय सदाजराय ॥ ६२

ङाब्दादिभोग्यविषयोपनयक्चमाय ।

समस्तकरणैरुपकारकाय

व्यक्ताय सूक्ष्मबृहदात्मवते नतोऽस्मि ॥ ६३

इति बिविधम्जस्य यस्य रूपं

प्रकृतिपरात्ममयं सनातनस्य ।

प्रदिशतु भगवानदोषपुंसां

पुंसः

प्रमाणकुशल पुरुषेकि प्रमाण भी इयत्ता करनेमें समर्थ

नहीं होते वे श्रीहरि श्रवण-पथमें जाते ही समस्त पापोंको

नष्ट कर देते हैं॥ ५९ ॥

जिन परिणामहीन प्रभुका आदि, अन्त, वृद्धि और

क्षय कुछ भी नहीं होता, जो नित्य निर्विकार पदार्थ हैं

उन स्तवनीय प्रभु पुरुषोत्तमको मैं नमस्कार करता

हूँ॥ ६० ॥ जो उन्हींके समान गुणोंको भोगनेवाला है,

एक होकर भी अनेक रूप है तथा शुद्ध होकर भी

विभिन्न रूपॉंके कारण अरुद्ध - (विकारवान्‌-) सा अतीत

होता है और जो ज्ञानस्वरूप एवं समस्त भूत तथा

विभूतियोंका कर्ता है उस नित्य अव्यय पुरुषको नमस्कार

है॥ ६६९ ॥ जो ज्ञान (सत्त्व), प्रवृत्ति (रज) और

नियमन (तम) की एकतारूप है, पुर्षे भोग प्रदान

करनेमें कुशल है, त्रिगुणात्मक तथा अव्याकृत है,

संखारकी उत्पत्तिका कारण है, उस स्वतःसिद्ध तथा

जराद्यन्य प्रभुको सर्वदा नमस्कार करता हूँ॥६२॥

जो आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवीरूप है,

शब्दादि भोग्य॑ विषयोंकी प्राप्ति करने समर्थ है

और पुरुष्का उसकी समस्त इन्द्रियों्राण उपकार करता

है उस सुक्ष्म और विराट्रूप व्यक्त परमात्माको नमस्कार

करता हूं ॥ ६३ ॥

इस प्रकार जिन नित्य सनातन परमात्माके प्रकृति-

पुरुषमय ऐसे अनेक रूप हैं वे भगवान्‌ हरि समस्त

पुरुषोंकों जन्म और जरा आदिसे रहित (मुक्तिरूप)

हरिरपजन्यजरादिकां स सिद्धिम्‌ ॥ ६४ | सिद्धि प्रदान करें॥ ८४ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे चष्ठेंडशो अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

ज्य + $ ॥

इति श्रीपराशरमुनिविरचिते श्रीविष्णुपरत्वनिर्णायके श्रीमति

घष्ठोऽक्ञः समाप्तः ।

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