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* पुराणं गारुडं वक्ष्ये सारं विष्णुकथाश्रयम्‌ *

[ संक्षिप्त गरुडपुरणाङ्क

। 4

स्वर्ग तथा नरक मनुष्यको अपने कर्मानुसार हौ प्राप्त

होते हैं। हे पक्षिश्रेष्ठ स्वर्गं और नरकमें कर्मफलका भोग

करके प्राणी कभी थोड़ेसे शेष पाप-पुण्यका भोग करनेके

लिये पृथ्वीपर आ जाता है। जो स्वर्गमें निवास करते हैं,

उन लोगॉंकों यह दिखायी देता हैं कि नरकलोकॉमें

प्राणियोंकों बहुत दुःख है। यहाँपर यमराजके दूतोंसे

प्रताड़ित वे नरकवासी कभी प्रसन नहीं होते हैं, उन्हें तो

दुःख-ही-दुःख झेलना पड़ता है। जवसे मनुष्य विमाने

चढ़कर ऊपरकी ओर प्रस्थान करता है तभीसे उसके मनमें

यह भाव स्थान बना लेता है कि पुण्यके समास होनेपर मैं

स्वर्गसे नीचे आ जाऊँगा। इसलिये स्वर्गमें भी बहुत दुःख

है। नरकवासियोंकों देख करके जीवको महान्‌ दुःख होता

है; क्योंकि मेरी भी इसी प्रकारकौ गति होगी-इस चिन्तासे

वह रात-दिन मुक्त हौ नहीं होता है। गर्भवासमें प्राणीको

योनिजन्य बहुत कष्ट होते हैं। योनिसे पैदा होते समय उसे

महान्‌ दुःख होता है। उत्पन्त होनेके बाद बालपनमें भी उसे

दुःख है और वृद्धावस्थामें भी दुःख है। काम, क्रोध तथा

ईर्ष्याका सम्बन्ध होनेसे युवावस्थामें भी उसके लिये

असहनीय दुःख है। दुःस्वप्न, वृद्धावस्थामें तथा मरणके

समय भी उत्कर दुःख उसे होता है। यमदूतोंके द्वारा

खचकर नरकमें भी ले जाये जा रहे जीवको अधोगति प्राप्त

होती है । उसके बाद फिर जीवका गर्भसे जन्म होता है और

मृत्यु होती है। ऐसे संसार-चक्रमें प्राणी कुम्भकारके चक्रके

समान घूमते रहते हैं। पूर्वजन्ममें किये गये पुण्य-पापसे बंधे

जीव बार-बार इसी संसारके आवागमनका दुःख भोगते हैं।

हे पक्षिन्‌! सैकड़ों प्रकारके दुःखसे व्याप्त इस संसारक्षेत्रमे

रक्षमात्र भी सुख नहीं है। हे विनतासुत! इसलिये मनुष्योंको

मुक्तिके लिये प्रयत्न करना चाहिये। जीवकी जैसी स्थिति

गर्भे होती है, वह सब मैंने तुम्हें सुना दिया है। अब मैं

पूर्वक्रमसे पूछे गये प्रश्नका हौ उत्तर दूँ या इसी अन्तरालमें

कुछ अन्य प्रश्न करनेको तुम्हारी इच्छा है?

गरुडने कहा-हे देवेश! पूछे गये प्रश्नॉमेंसे दो

महत्त्वपूर्ण प्रश्नोंके उत्तर तो मुझे प्राप्त हो गये हैं, अब मुझे

तीसरे प्रश्नका उत्तर प्रदान करनेकी कृपा करें।

श्रीकृष्णने कहा--हे पक्षोनद्र! मरणासन्न प्राणौके

लिये क्‍या करना चाहिये ? यह तुमने प्रश्न किया है ? उसका

उत्तर सुनो! मैं संक्षेपे उसे कह रहा हूँ।

मृत्युकों संनिकट जानकर मनुष्यको सबसे पहले

गोमूत्र, गोमय, तीर्थोदक और कुशोदकसे स्नान कराये।

तदनन्तर स्वच्छ एवं पवित्र वस्त्र पहना दे और गोमयसे

लिपी हुई भूमिपर दक्षिणाग्र कुशॉका एवं तिलका आस्तरण

करके सुला दे। सुलाते समय उस मरणासन प्राणीके

सिरको पूर्व अथवा उत्तरकी ओर करके उसके मुखमें

सोनेका टुकड़ा डाले। हे खगेश ! उसीके संनिकट भगवान्‌

शालग्रामकी मूर्तिं और तुलसीका यक्ष लाकर रख दे।

तत्पश्चात्‌ वरहीपर घीका एक दीपक अलाये और "ॐ नमो

भगवते वासुदेवाय '-- इस मन्त्रका जप करे? पूजा-दान

तथा नाम-स्मरण आदिमे मन्त्रसे " ॐ ' का योग करे । पुष्प-

धूपादिसे भली प्रकार इषीकेश विष्णुदेवकौ पूजा करे।

तदनन्तर विनगप्रभावसे स्तुत्ि-पाठ करते हुए उनका ध्यान

करे। उसके बाद ब्राह्मणों, दीनं ओर अनार्थोको दान देकर,

भगवान्‌ विष्णुके चरणोँको हृदयमें स्थान देते हुए पुत्र, मित्र,

स्त्री, खेती -बारी तथा धन-धान्यादिके प्रति अपनी ममताका

परित्याग कर दे। उस समय जीवको बहुत हौ कष्ट होता

है। उसके निवारणके लिये पुत्रादि सभी परिजनॉकों

मरणासन प्राणीके कल्याण-हेतु ऊँचे स्वरमें 'पुरुषसूक्त का

पाठ करना चाहिये ।

है गरुड ! मृत्युके आ जानेपर जो कर्म करना चाहिये,

यह सब मैंने तुम्हें सुना दिया। अब इस समस्त कर्मका

फल क्या है? उसको मैं संक्षेपमें कहता हूँ, तुम सुनो।

है पक्षिराज ! स्नान करनेसे प्राणीको स्वच्छता प्राप्त होती

है। उससे शरोरकी अपवित्रता दूर होती है। उसके बाद

भगवान्‌ विष्णुका स्मरण होता है और उनका स्मरण सभी

प्रकारके उत्तम फल प्रदान करता है। कुश और कपास

आहुर प्राणीको स्वर्ग ले जाते हैं, इसमें संदेह नहीं है। तिल

तथा कुश जलमें डालकर मरणासन व्यक्तिको कराया गया

स्नान यज्ञमें किये गये अवभृथ-स्नानके समान होता है।

ऐसे ही गोमयसे लिपी हुई भूमिपर मण्डल बनाकर उसपर

तिल, कुश आदि डालकर यदि मरणासन्त्र व्यक्तिको

सुलाया जाय तो विष्णु आदि देव प्रसन होते हैं; क्योंकि

ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, लक्ष्मी और अग्निदेव मण्डलमें रहते हैं।

इसीलिये मरणासन्त व्यक्तिकों जिस भूमिपर शयन कराना

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