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और अनभियोक्ता। उक्त संधियोंमेंसे उपन्यास,

प्रतीकार और संयोग --ये तीन संधियाँ अनभियोक्ता

(अनाक्रमणकारी ) -के प्रति करनी चाहिये। शेष

सभी अभियोक्ता (आक्रमणकारी )-के प्रति कर्तव्य

हैं॥ ५--८ ॥

परस्परोपकार, मैत्र, सम्बन्धज तथा उपहार--

ये ही चार संधिके भेद जानने चाहिये-ऐसा

अन्य लोगोंका मत है'॥९॥

बालक, वुद्ध, चिस्कालका रोगी, भाई-बन्धुओंसे

बहिष्कृत, डरपोक, भीरु सैनिकोंबाला, लोभी-

लालची सेवकोंसे घिरा हुआ, अमात्य आदि

प्रकृतियोंके अनुरागसे वञ्चित, अत्यन्त विषयासक्त,

अस्थिरचित्त और अनेक लोगोंके सामने मन्त्र

प्रकट करनेवाला, देवताओं और ब्राह्मणोंका निन्दक,

दैवका मारा हुआ, दैवको ही सम्पत्ति और विपत्तिका

कारण मानकर स्वयं उद्योग न करनेवाला, जिसके

ऊपर दुर्भिक्षका संकर आया हो वह, जिसकी

सेना कैद कर लौ गयी हो अथवा शत्रुओंसि चिर

गयी हो वह, अयोग्य देशमें स्थित (अपनी सेनाकी

पहुँचसे बाहरके स्थानमें विद्यमान), बहुत-से शत्रुओंसे

युक्त, जिसने अपनी सेनाको युद्धके योग्य कालमें

नहीं नियुक्त किया है वह, तथा सत्य और धर्मसे

भ्रष्ट--ये बीस पुरुष ऐसे हैं जिनके साथ संधि न

करे, केवल विग्रह करे॥ १०-१३ ३ ॥

एक-दूसरेके अपकारसे मनुष्योंमें विग्रह (कलह

या युद्ध) होता है। राजा अपने अभ्युदयकी इच्छासे

अथवा शत्रुसे पीड़ित होनेपर यदि देश-कालको

अनुकूलता और सैनिक-शक्तिसे सम्पन हो तो

विग्रह प्रारम्भ करे॥ १४-१५॥

सप्ताङ्ग राज्य, स्त्री (सीता आदि-जैसी

असाधारण देव ), जनपदके स्थानविशेष, राष्ट्रक

एक भाग, ज्ञानदाता उपाध्याय आदि और सेना-

इन्मेसे किंसीका भी अपहरण विग्रहका कारण है

(इस प्रकार छः हेतु बताये गये) । इनके सिवा

मद (राजा दप्भोद्धव आदिकी भाँति शौर्यादिजनित

दर्प), मान (रावण आदिकी भाँति अहंकार),

जनपदकी पीड़ा (जनपद-निवासि्योका सताया

जाना), ज्ञानविधात (शिक्षा- संस्थाओं अथवा

ज्ञानदाता गुरुओंका विनाश), अर्थविघात (भूमि,

हिरण्य आदिको क्षति पहुँचाना), शक्तिविघात

(प्रभुशक्ति, मन्त्रशक्ति और उत्साहशक्तियोका

अपक्षय), धर्मविघात, दैव ( प्रारब्धजनित दुरवस्था),

सुग्रीव आदि-जैसे मित्रके प्रयोजनको सिद्धि,

माननीय जनोंका अपमान, बन्धुवर्गका विनाश,

भूतानुग्रहविच्छेद ८ प्राणिर्योको दिये गये अभयदानका

खण्डन - जैसे एकने किसी वनमें बहाँके जन्तुओंको

अभय देनेके लिये मृगयाकी मनाही कर दी, किंतु

दूसरा उस नियमको तोड़कर शिकार खेलने आ

गया - यही ' भूतानुग्रहविच्छेद ' है), मण्डलदूषण

(द्रादशराजमण्डलर्मेसे किसीको विजिगीषुके विरुद्ध

उभाड़ना), एकार्थाभिनिवेशित्व (जो भूमि या स्त्री

आदि अर्थ एकको अभीष्ट है, उसीको लेनेके

लिये दूसरेका भी दुराग्रह) -ये बीस विग्रहके

कारण हैं॥ १६-१८॥

सापन (रावण और विभीषणकी भाँति सौतेले

भाइयोंका वैमनस्य), वास्तुज ( भूमि, सुवर्ण आदिके

हरणसे होनेवाला अमर्ष), स्वीके अपहरणसे होनेवाला

रोष, कटुवचनजनित क्रोध तथा अपराधजनित

प्रतिशोधकी भावना--ये पाँच प्रकारके वैर अन्य

विद्वानोंने बताये हैः ॥ १९॥

१. "परस्पततेएकयर" हौ प्रतोकार है; “यैत्र का हो नाम ' संणत' संधि ह । सस्यन्धजको हो ' संतान ' कहा गया हैं और " उपहार"

ते पूर्वकथित “उपहार' है ही । इनमें अन्य सबका समावेश है।

२. सापत्र-वैरमें पूर्वोत्त एकार्थाभिनिवेशका अन्तर्भाव हौ जाता है, स्वौ और बास्तुके अपहरणजनित यैरमें पूर्वकवित

स्तोस्थानापहाएज यैरका अन्तर्भाव है। याग्जात बैस्में पूर्जोक्त ज्ञावापहारज और अपमानजनित वैर अन्तर्भूत होते हैं और अपराधजनित

सैरमें पूर्जोक्ततेष १४ कारणोंका समावेश हो जाता है।

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