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महाभोजस्त्वतिधर्मात्मा तस्यान्वये भोजा
मृत्तिकावरपुरनिवासिनो मारत्तिकावरा बभूवुः
चतुर्थ अदा
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महाभोज बड़ा धर्मात्मा था, उसकी सन्तानमे भोज्व॑रीी
तथा मृत्तिकावस््पुर निवासी मार्त्तिकावर नृपतिगण
॥ ७ ॥ वृष्णेः सुमित्रो युधाजिच्च पुत्रावभूताम् | दए ॥७॥ वृष्णिके दो पुत्र सुमित्र ओर युधाजित् हुए,
॥ ८ ॥ ततश्वानमित्रस्तथानमित्रान्निष्नः
निप्नस्य प्रसेनसत्राजितों ॥ १० ॥
तस्य च सत्राजितो भगवानादित्यः सखाभवत्
॥ १९ ॥ एकदा त्वभ्भोनिधितीरसंश्चयः सूर्य
सन्नाजिसुष्टाब तन्पनस्कतया च भास्वानभिष्टूय'
मानो5ग्रतस्तस्थो ॥ १२ ॥ ततस्त्वस्पष्टमर्तिधरं
चैनमालोक्य सत्राजित्सूर्यमाह । ९३ ॥ यथैव
व्योघ्नि बहधिपिष्डोपमं त्वामहमपदयं तधैवाद्याग्रतो
गतमप्यत्र भगवता किञ्चिन्न प्रसादीकृतं विशेष-
॥ ९॥
मवतार्यैकान्ते न्यस्तम् ॥ ९४ ॥
ततस्तमाताभ्रोज्ज्वलं हुस्ववपुवमीषदापिद्कल-
नयनमादित्यमद्राक्षीत् ॥ १५ ॥ कृतप्रणिपात-
स्तवादिकं च सत्राजितमाह भगवानादित्यस्सहस्र-
दीधितिर्वरमस्मत्तोऽभिमतं वृणीघरेति ॥ १६ ॥
स च तदेव मणिरत्रमयाचत ॥ ९७॥ स चापि
तस्मै तदत्तवा दीधितिपतिर्वियति स्वधिष्ण्य-
मारुरोह ॥ १८ ॥
सत्राजिदप्यमलमणिरत्रसनाथकण्टतया सूर्य
इव॒ तेजोभिरशेषदिगन्तराण्युद्धासयन् द्वारकं
विवेश ॥ १९ ॥ द्वारकावासी जनस्तु तमायान्त-
मवेक्ष्य भगवन्तमादिपुरुषं पुरुषोत्तममबनि-
भारावतरणायांशेन मानुषरूपधारिणं प्रणिपत्याह
॥ २० ॥ भगवन् भवन्तं द्रष्टुं नूनमयमादित्य
आयातीत्युक्तो भगवानुवाच ।॥ २१ ॥
भगवाज्नायमादित्य: सत्राजिदयमादित्यदत्त-
स्यमन्तकाख्यं पहामणिरल्नं बिध्रदत्नोपयाति
॥ २२ ॥ तदेनं विश्रब्धाः पयतेत्युक्तास्ते तथैव
ददृशुः ॥ २३ ॥
सच तें स्यपत्तकमणिमात्मनिवेशने चक्रे ॥ २४ ॥
उनमेंसे सुभित्रके अनमित्र, अनमित्रके निन्न तथा निघ्रसे
प्रसेन और सत्राजित्का जन्म हुआ ॥ ८ - -१०॥
उस सत्राजितके मित्र भगवान् आदित्य हुए॥ ११ ॥
एक दिन खमुद्र-तरपर बैठे हुए सत्राजिते सूर्यभगवान्की
स्नुति कौ । उसके तन्पय होकर स्तुति करनेसे भगवान्
भास्कर उसके सम्मुख प्रकट हुए ॥ १२॥ उस समय
उनको अस्पष्ट मूर्तिं धारण किये हुए देखकर सत्राजित्ने
सूर्यस कहा-- | १३ ॥ "“आकःङापे अग्िपिष्डके समान
आपको जैसा मैंने देखा है वैसा ही सम्मुख आनेपर भो देख
रहा ह । यहाँ आपकी प्रसादस्वरूप कुछ बिश्ञेषता मुझे नहीं
दीखती ।'' सत्राजितके ऐसा कहनेपर भगवान् सूर्यने अपने
गलेसे स्यमन्तक नामकी उत्तम महामणि उतारकर अलग
रख दी॥ १४ ॥
तब सत्राजित्ने भगवान् सूर्यको देखा--उनक। डारौर्
किचित् ताम्रवर्ण, अति उज्ज्वल और लघु था तथा उनके
नेत्र कुछ पिंगलवर्ण थे॥ १५॥ तदनन्तर सत्राजितके
प्रणाम तथा स्तुति आदि कर चुकनेपर सहस्लोशु भगवान्
आदित्यो उससे कहा--'तुम अपना अभीष्ट वर
माँगो" ॥ १६॥ सत्राजितने उस स्यमन्तकमणिको ही
माँगा ॥ १७॥ तब भगवान् सूर्य उसे वह मणि देकर
अन्तरिक्षम अपने स्थानक चले गये ॥ ६८ ॥
फिर सज्नाजितने उस निर्मल मणिरत्रसे अपना कण्ठ
सुशोभित होनेके कारण तेजसे सूर्यके समान समस्त
दिशाओंको प्रकाशित करते हुए द्वारकामें प्रवेश
किया | १९॥ द्वारकावासी ल्मेगोने उसे आते देख,
पृथिवीका भार उतारनेके सिये अदाकूपसे अवतीर्ण हुए
मनुष्यरूपधारी आदिपुल्ष भगवान् पुरुषोत्तमसे प्रणाम
करके कहा-- ॥ २० ॥ “भगवन् ! आपके दर्दनिके
स्यि निश्चय ङ्गी ये भगवान् सूर्यदेव आ रहे है'' उनके ऐसा
कहनेपर भगवानने उनसे कहा-- ॥ २९ ॥ “ये भगवान्
सूर्य नहीं है, सत्राजित् दै । यह सूर्यभगवानसे प्राप्त हुई
स्यमन्तकं नामक महापणिको धारणकर् यहाँ आ रहा
है॥ २२ ॥ तुमल्छोग अव विश्वस्त होकर इसे देखो।”
भगवानके ऐसा वजनेपर द्वारकावासी उसे ठसी प्रकार
देखने लगे ॥ २३ ॥
सत्राजितने वह स्थसन्तकमणि अपने घरमे रख दी ॥ २४ ॥