(अब राहुके दिशा-संचारका वर्णन कर रहे
हैं--) (दैनिक राहु) राहु पूर्वदिशासे वायुकोणतक,
वायुकोणसे दक्षिण दिशातक, दक्षिण दिशासे
ईशानकोणतक, ईशानकोणसे पश्चिमतक, पश्चिमसे
अग्निकोणतक एवं अग्निकोणसे उत्तरतक तीन-
तीन दिशा करके चार घटियोंमें भ्रमण करता
है॥ २१-२२॥
(अब ओषधियोंके लेपादिद्वारा विजयका वर्णन
कर रहे हैं--) चण्डी, इन्द्राणी (सिंधुबार), वाराही
(वाराहीकंद), मुशली (तालमूली), गिरिकर्णिका
(अपराजिता), बला (कुट), अतिबला (कंघी),
क्षीरी (सिरखोला), मल्लिका (मोतिया), जाती
(चपेली), यूथिका (जूही), श्वेतार्क (सफेद मदार),
शतावरी, गुरुच, वागुरी-इन यथाप्राप्त दिव्य
ओषधिर्योको धारण करना चाहिये । धारण करनेपर
ये युद्धे विजय-दायिनी होती है ॥ २३-२४॥
“ॐ नमो भैरवाय खद्गपरशुहस्ताय र
विष्नविनाशाय ॐ हूं फट् ।' -- इस
शिखा बाँधकर यदि संग्राम करे तो विजय अवश्य
होती है। (अब्र संग्राममे विजयप्रद) तिलक,
अञ्जन, धूप, उपलेप, स्नान, पान, तैल, योगचूर्ण--
इन पदार्थोंका वर्णन करता हूँ, सुनो -
सुभगा (नीलदूर्वा), मनःशिला (मैनसिल),
ताल (हरताल )--इनको लाक्षारसमे मिलाकर,
स्त्रीके दूधमें घोंटकर ललाटे तिलक करनेसे
शत्रु वशमें हो जाता है । विष्णुक्रान्ता (अपराजिता),
सर्पाक्षी महिषकंद), सहदेवी ( सहदेडया), रोचना
(गोरोचन )-इनको बकरीके दूधमें पीसकर
लगाया हुआ तिलक शत्तुओंको वशमें करनेवाला
होता है। प्रियंगु (नागकेसर), कुङ्कुम, कुष्ठ,
मोहिनी (चमेली), तगर, धृत --इनको मिलाकर
लगाया हुआ तिलक वश्यकारक होता है । रोचना
(गोरोचन), रक्तचन्दन, निशा (हल्दी), मनःशिला
(मैनसिल), ताल (हरताल), प्रियंगु (नागकेसर),
सर्षप (सरसों), मोहिनी (चमेली), हरिता (दुर्वा),
विष्णुक्रान्ता (अपराजिता), सहदेवी, शिखा
(जटामाँसी )--इनको मातुलुङ्ग (बिजौरा नीबू) के
रसमें पीसकर ललाटमें किया हुआ तिलक वशमें
करनेवाला होता है। इन तिलकोंसे इन्द्रसहित
समस्त देवता वशमें हो जाते हैं, फिर क्षुद्र
मनुष्योंकी तो बात ही क्या है। मज्िषप्ठ, रक्तचन्दन,
कटुकन्दा (सहिजन), विलासिनी, पुनर्नवा
(गदहपूर्णा)--इनको मिलाकर लेप करनेसे सूर्य
भी वशमें हो जाते हैं। मलयचन्दन, नागपुष्प
(चम्पा), मञ्जिष्ठ, तगर, वच, लोध्र, प्रियंगु
(नागकेसर), रजनी (हल्दी), जटामांसी -इनके
सम्मिश्रणसे बना हुआ तैल वशमें करनेवाला होता
है ॥ २५--३४॥
इस प्रकार आदि आग्नेव महापुराणमें “बुद्धजयार्णवसम्बन्धी विविध योगोका वर्ण” नामक
एक सौ तेईसवाँ अध्याय पूर हुआ# १२३॥
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इसमें नामानुकूल शुभ या अशुभ कार्य करना चाहिये । इसी तरह “मुहूर्तचिनतायणि ' मे १५ मुहूर्त विवाह -प्रकरन (५२)-में कहे
गिरिशभुजगसित्रापिभ्यवस्यप्युविस्वेऽभिजिदथ च विधातापीन्द्र इच्दानलौ च॥
निर्तिरुदकनाधोऽप्यर्वमाथो भगः स्युः क्रमश इह मुरता वासरे काणचन्द्रः ।
गये है, जैसे-