३१६ * संक्षिप्त ब्रह्मवैवर्तपुराण «
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साधनविहीन मनुष्यका मन नौकाको पाकर आनन्दसे | चिरकालसे व्रतोपवास करनेवाले भूखे मनुष्योंका
भर जाता है, वैसे ही मेरा मन भी आनन्दित हो | मन जैसे सामने उत्तम अन्न देखकर प्रसन्न हो
रहा है। जैसे प्याससे सूखे हुए कण्ठवाले | उठता है, उसी तरह मेरा मन भी हर्षित हो रहा
मनुष्योंका मन चिरकालके पश्चात् अत्यन्त शीतल | है।' यों कहकर पार्वतीने अपने बालकको गोदमें
एवं सुवासित जलको पाकर प्रसन्न हो जाता है, | लेकर प्रेमके साथ उसके मुखमें अपना स्तन दे
यही दशा मेरे मनकी भी है। जैसे दावाग्निसे धिरे | | दिया। उस समय उनका मन परमानन्दे निमग्र
हुएको अग्निरहित स्थान और आश्रयहीनको | हो रहा था। तत्पश्चात् भगवान् शंकरने भी
आश्रय मिल जानेसे मनकी इच्छा पूरी हो जाती | प्रसन्नमनसे उस बालककों अपनी गोदमें उठा
है, उसी प्रकार मेरी भी इच्छापूर्तिं हो रही है।| लिया।
(अध्याय ९)
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शिव, पार्वती तथा देवताओंद्वारा अनेक प्रकारका दान दिया जाना, बालकको
देवताओं एवं देवियोंका शुभाशीर्वाद और इस मङ्खलाध्यायके श्रवणका फल
श्रीनारायणजी कहते है -- नारद ! तदनन्तर
उन दोनों पति-पत्री-शिव-पार्वतीने बाहर जाकर
पुत्रकौ मङ्गलकामनासे हर्षपूर्वक ब्राह्मणोंको
नानाप्रकारके रत्न दान किये तथा भिक्षुओं और
वन्दिर्योको विभिन्न प्रकारकौ वस्तुं बाँटीं। उस
अवसरपर शंकरजीने अनेक प्रकारक बाजे बजवाये।
हिमालये ब्राह्मणोको एक लाख रत, एक हजार
श्रेष्ठ हाथी, तीन लाख घोडे, दस लाख गौएँ, पाँच
लाख स्वर्णमुद्राएँ तथा और भी जो मुक्ता, हीरे
और रत्न आदि श्रेष्ठ मणियाँ थीं, वे सभी दान कीं।
इसके अतिरिक्त दूसरे प्रकारके भी दान--जैसे
वस्त्र, आभूषण और क्षीरसागरसे उत्पन्न सभी
तरहके अमूल्य रत्र आदि दिये। कौतुकी विष्णुने
ब्राह्मणॉंको कौस्तुभभणिका दान दिया। त्रह्माने
हर्षपूर्वक ब्राह्मणोंको ऐसी विशिष्ट वस्तुं दान
कीं जो सृष्टिमें परम दुर्लभ थीं तथा वे ब्राह्मण
जिह पाना चाहते थे। इसी तरह धर्म, सूर्य, इन्द्र,
देवगण, मुनिगण, गन्धर्व, पर्वत तथा देवियोंने
क्रमशः दान दिये। ब्रह्मन्! उस अवसरपर क्षीरसागरने
हर्षित होकर कौतुकवश एक हजार माणिक्य,
एक सौ कौस्तुभमणि, एक सौ हरक, एक सहस्र
हरे रंगकी श्रेष्ठ मणियाँ, एक लाख गो-रतर, एक
सहस्त्र गज-रल्न, श्वेतवर्णके अन्यान्य अमूल्य रतन,
एक करोड़ स्वर्णमुद्राएँ ओर अग्निमें तपाकर शुद्ध
किये हुए वस्त्र ब्राहर्णोको प्रदान किये। सरस्वतीदेवीने
अमूल्य रत्रोंका बना हुआ एक ऐसा हार दिया, जो
तीनों लोकोंमें दुर्लभ था। वह अत्यन्त निर्मल,
साररूप और अपनी प्रभासे सूर्यके प्रकाशकी
निन्दा करनेवाला, मणिजटित और हरिके नगोंसे
सुशोभित था। उस रमणीय हारके मध्यमें कौस्तुभमणि
पिरोयी हुई थी। सावित्रीने हर्षित होकर एक
बहुमूल्य रल्रोंद्वारा निर्मित त्रिलोकौका साररूप हार
और सव तरहके आभूषण प्रदान किये। आनन्दमग्र
कुबेरने एक लाख सोनेको सिलें, अनेक प्रकारके
धन और एक सौ अमूल्य रत्न दान किये। मुने!
शिवपुत्रके जन्मोत्सवमें उपस्थित सभी लोगोंने इस
प्रकार ब्राह्मणोको दान देकर तत्पश्चात् उस शिशुका
दर्शन किया। उस समय वे सब परमानन्दमें निमग्र
थे। मुने! उस दानमें ब्राह्मणों तथा वन्दियोंको
इतना धन मिला था कि वे उसका भार ढोनेमें
असमर्थ थे, इसलिये बोझसे घबराकर मार्ममें
ठहर-ठहरकर चलते थे। वे सभी विश्राम कर
| चुकनेपर पूर्वकालके दाताओंकी कथाएँ कहते थे,
| जिसे वृद्ध एवं युवा भिक्षुक प्रेमपूर्वक सुनते थे।