काएड-७ सूक्त- ३८ ९३
[ ३५ - शत्तुनाशन सूक्त (३४) |
[ ऋषि- अथर्वा । देवता- जातवेदा । छन्द जगती ।]
१८१५. अग्ने जातान् प्र णुदा मे सपलान् प्रत्यजाताज्जातवेदो नुदस्व ।
अधस्पदं कृणुष्व ये पृतन्यवोऽनागसस्ते वयमदितये स्याम ॥१ ॥
हे अग्निदेव ! आप हमारे शत्रुओं का विनाश करें । हे जातवेदा अग्ने ! आप भविष्य में होने वाले शत्रुओं
का नाश करें । हमसे युद्ध के लिए तत्पर जनों का पतन हो । आपकी कृपा से हम आक्रोश शून्य; निष्याप रहकर
कभी दीनता को प्राप्त न हों ॥१ ॥
[ ३६ - सपत्नीनाशन सूक्त (३५) ]
[ ऋषि- अथवा । देवता- जातवेदा । छन्द- अनुष्टप् ३ तिष्टप् ॥]
१८१६. प्रान्यान्त्सपत्नान्त्सहसा सहस्व प्रत्यजाताञ्जातवेदो नुदस्व ।
इदं राष्ट्र पिपृहि सौभगाय विश्च एनमनु मदन्तु देवाः ॥१ ॥
हे जातवेद अग्निदेव ! आप हमसे विपरीत आचरण करने वाले शत्रुओं को नष्ट करें | अप्रकट अथवा भविष्य
में उत्पन्न होने वाले शत्रुओं का विनाश करे । इस राष्ट्र को समृद्धिशाली एवं सौभाग्यशाली बनाएँ । समस्त देवगण
इसका अनुमोदन करें ॥१ ॥
१८१७. इमा यास्ते शतं हिराः सहस्रं धमनीरुत ।
तासां ते सर्वासामहमश्मना बिलमप्यधाम् ॥२ ॥
हे सी ! हम तुम्हारी सौ नाडियो ओर सहस्न धमनियों के मुख पत्थर से बन्द करते हैं ॥२ ॥
१८१८. परं योनेरवरं ते कृणोमि मा त्वा प्रजाभि भून्मोत सूनुः ।
अस्व॑९ त्वाप्रजसं कृणोम्यश्मानं ते अपिधानं कृणोमि ॥३ ॥
तुम्हारे गर्भस्थान से परे जो है, उन्हे समीप करते हैं । इससे तुम्हें प्राणवान् सन्तान प्राप्त हो । पत्थर को
आवरण रूप से स्थित करता हूँ ॥३ ॥
[ ३७ - अञ्जन सूक्त (३६) |
[ ऋषि- अथर्वा । देवता- अक्षि । छन्द- अनुष्टप् ।}
१८१९. अक्ष्यौ नौ मधुसंकाशे अनीकं नौ समञ्जन् ।
अन्तः कृणुष्व मां हृदि मन इन्नौ सहासति ॥९॥
हे पत्नी ! हम दोनों के नेतरौ में परस्पर मधुर (स्मेह) भाव हो । नेतरो में पवित्रता का अञ्जन रहे । हमारे हृदय
और मन एक समान धारणा वाले हो ॥१ ॥
[ ३८ - वास सूक्त (३७) ]
[ ऋषि- अथर्वा । देवता- वास | छन्द- अनुष्टप् ॥]
१८२०.अभित्वा मनुजातेन दथामि मम वाससा ।
यथासो मम केवलो नान्यासां कीर्तयाश्चन ॥१ ॥