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[ भूमिका |

“वेदानां सामवेदोऽस्मि" कहकर गीता

उपदेशक ने सापवेद की गरिमा को प्रकर किया है ।

साथ ही इस उक्ति के रहस्य की एक झलक पाने की

ललक हर स्वाध्यायशील के मन में पैदा कर दी है ।

यों तो वेद के सभी मंत्र अनुभूतिजन्य ज्ञान के

उद्घोषक होने के कारण लौकिक एवं आध्यात्मिक

रहस्यं से लबालब भरे हैं, फिर सामवेद में ऐसी क्या

विशेषता है, जिसके कारण गीता ज्ञान को प्रकट करने

वाते ने यह कहा कि "वेदों में मैं सामवेद हूँ ।'

यहाँ स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि

ऋषियों ने "वेद" सम्बोधन किसी पुस्तक विशेष के

लिए नहीं किया है, उसका अर्थ है दिव्य साक्षात्कार से

उद्भूत ज्ञान । इस आधार पर 'वेद' कोई

नहीं, ज्ञान की एक विशिष्ट परिष्कृत धारा दत

सामवेद को भी मंत्रों का एक संग्रह न कहकर ज्ञान की

अभिव्यक्ति या उपयोग की एक विशिष्ट विधा ही

कहा जा सकता है। इस दृष्टि से 'बेदानां-साम्र-

वेदोऽस्मि' का भाव यह निकलता है कि वेद को

सामथारा या विधा को समझ लेने से 'मुझे' (परमात्म-

चेतना को) भी समझा जा सकता है ।

यहाँ ज्ञान के साथ भावना के संयोग का महत्त्व

समझाया गया है । यह सत्य है कि ज्ञान दृष्टि से ईश

साक्षात्कार किया जा सकता है, किन्तु भावना के बिना

ज्ञान दृष्टि भी अपूर्ण ही रहती है। यह सत्य है कि

'भावे हि विद्यते देवः तस्मात्‌ भावो हि कारणम्‌'

अर्थात्‌ भावना ही देवों का निवास है, अतः उनके

साक्षात्कार का मुख्य आधार भावना ही है ; किन्तु

भावना एक उफान है, उसे भटकन से बचाकर

दिशाबद्ध तो, ज्ञान ही-विवेक ही करता है । इसीलिए

ज्ञान एवं भावना का युग्म ही ईश साक्षात्कार का

सुनिश्चित आधार बनता है ।

संत तुलसीदास ने इसीलिए श्रद्धा एव

विश्वास के रूप में भवानी-शंकर की वंदना करते हुए

कहा है कि इनके योग के बिना सिद्ध पुरुष भी अपने

अंतःकरण में विराजमान ईश तत्त्व का साक्षात्कार नहीं

कर पाते - .

भवानीशंकरौ वद्दे

याभ्यां विना न पश्यन्ति

सिद्धाः स्वान्तःस्थपीश्वरम्‌।

~ मानस

ज्ञान की परिपक्वता से विश्वास उपजता है

तथा भावना की परिपक्वता श्रद्धा है । ज्ञान और

भावना के संयोग से ईश से साक्षात्कार संभव ९, यह

तथ्य निर्विवाद है., सत्य से ईश्वर का बोध हो सकता

है-- यह मानने वाते अगले चरण में यह भी अनुभव

करते हैं कि सत्य हौ ईश्वर है; इसी तरह यह

अनुभवगम्य है कि परिष्कृत ज्ञान और उत्कृष्टतम

भावना का संयोग ईश्वरत्व ही है ।

वेद है ज्ञान, साम है गान । गान का सीधा-सी-

धा सम्बन्ध भाव-संवेदना से है । अनुभूति की अभि-

व्यक्ति में शब्दों की सामर्थ्य छोरी पड़ जाती है । वेद

अनुधूतिजन्य ज्ञान है, उन्हें व्यक्त करने में भी शब्द

शक्ति अपर्याप्त है। ऋषि ने अनुभूतिजन्य ज्ञान को

शब्दों में व्यक्त रने का प्रयास किया, किन्तु जब

देखा कि पूरे प्रयास के बाद भी अभिव्यक्ति अनुभूति

के स्तर की नहीं बन सकी, तो उसने ईमानदारी से कह

दिया 'नेति-नेति-'येह बात पूरी नहीं हो सकी ।

शब्दों द्वारा अभिव्यक्ति की तीन धाराएँ

है-- म्य, पद्य एवं गान । ज्ञान की किसी भी धारा को

इन्हीं माध्यमों से व्यक्त किया जाता रहा है । कोई भी

देश-काल हो, अभिव्यक्ति के माध्यम तो यही हैं ।

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