॥श्रीगणेशाय नपः॥
कूर्मपुराणम्
पूर्वभाग:
प्रथमो5ध्याय: पुनीनां संहितां वक्तं व्यासः पौराणिकीं पुरा॥५॥
प्राचीन समय में स्वयं प्रभु भगवान् व्यासदेव ने आपको
(इनन ब्राह्मण का मोक्ष ) हो घुनियों कौ इस पौराणिक संहिता को कहने के लिए कहा
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। धा।
देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमदीःयेता॥१॥ त्व॑ हि स्वायम्भुवे यज्ञ सुत्याहे बितते सति।
श्रीनारायण को, नरों में उत्तम श्रो नर को, तथा श्री देवी | मभूतः संहिता कुं स्वांशेन पुरुषोत्तप:॥ ६॥
सरस्वती को प्रथम नमस्कार करने के पश्चात् जय ग्रन्थ का | स्वया ब्रह्मा के यज्ञ में विश्रान्ति पश्चत् स्नान हो जाने
आरंभ करना चाहिए। पर कहा था कि इस पुराणसंहिता को कहने के लिए स्वयं
नमस्कृत्याप्रमेबाय विष्णवे कूर्मरूपिणे। पुरुषोत्तम भगवान् के हो अंशरूप में आप उत्पन्न हुए हैं।
पुराण संप्रवक्ष्यामि यक्तं विश्वयोत्रिता॥ १॥ तस्पाद्धवनं पृच्छामः पुराणं कौरपपुत्पप्
मैं अप्रमेय (अमाप), कृर्मरूपधारौ विष्णु को नमन कुमर्हमि चास्माकं पुराणार्थविशारद॥७॥
करके समस्त विश्व कौ उत्पतिस्थान ब्रह्मा (अथवा | इसलिए हम आपसे श्रेष्ठ कूर्मपुराण के विषय में पूछते हैं।
कूर्मरूपधारी विष्णु) द्वा कथित इस (कूर्म) पुराण का
वर्णन करूँगा।
सगरान्ते सूतमनर्थ नैमियेया महर्षय:।
पुराणसंहितां पुण्यां पप्च्छ रोमहर्पणम्॥ २॥
अपने यज्ञानुष्ठान कौ समाप्ति पर मैमिपारण्यवासी महर्षियों
ने निष्पाप रोमहर्षण नामक सुतं से इस पुण्यमयी
पुराणसंहिता के विषय में पूछा।
त्वया पूत महावुद्धे भगवान् ब्रह्मवित्तप:।
इतिहासपुराणार्थ व्यास: सम्यगुपासित:॥ ३॥
तस्य ते सर्वरोभाणि बचसा हृषितानि यत्।
दैपायनस्य तु भवांस्ततों वै रोपहर्षण:॥ ४॥
हे महान् बुद्धिसम्पन्न सूतजो ! आपने इतिहास और पुराणों
के ज्ञान के लिए, ब्रह्मज्ञानियों में अतिश्रेष्ठ भगवान् व्यास की
सम्यक् उपासना की है। ट्वैपायन व्यासमौ के वचन से
आपके सभौ रोम हर्पित हो उठे थे, इसीलिए आप रोमहर्षण
नाम से प्रसिद्ध हुए।
भवन्तमेव भगवान् व्याजहार स्वयं परपुः।
हे पुराणों का अर्थ करने में विशारद! आप हौ हमें यह कहने
के लिए योग्य हैं।
पुनीनां क्चने श्रुत्वा सूतः पौराणिकोत्तम:।
प्रणम्य पनसा प्राह गुरं सत्यवतीगुतम्॥ ८॥
पौराणिको में उत्तम सूतजो ने मुनियों का वचन सुनकर
सत्यवती के पुत्रे व्यासदेव को मन हो मन प्रणाम करके
कहा।
रोमहर्पण उवाच
नमस्कृत्य जगद्यो्ति कूर्मरूपधरं हरिम्
व्ये पौराणिकीं दिव्यां कथां पापप्रणाशिनोम्॥ ९॥
यां शरुत्वा पापकर्मापि गच्छेत परमां गतिम्।
न नास्तिके कथां पुण्यापिपां बृयात्कदाचन॥। १०॥
रोमहर्षण ने कहा- जगत् के उत्पत्तिस्थान, कूर्मरूपधारौ
विष्णु को नमस्कार करके मैं इस पापनाशिनी दिव्य पुराण-
कथा को काह. जिस कथा को सुनकर, पापकर्म करने
बाला भी परम गति को प्राप्त करेगा। एवन्तु इस पुण्य कथा
को नास्तिकों के सामने कभी भी ने कहें!