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एहि सूर्य सहसाांको तैजोरादो जगत्पते ।

अनुकम्पय मो भक्त्या गृहाणार््य दिवाकर ॥|

संख्या ९

खर्षं ६६ ] गोरखपुर, सौर माघ, श्रीकृष्ण -संवत्‌ ५२९७, जनवरी १९९२ ई |

पूर्ण संख्या ७८२

भगवान्‌ नर-नारायणकी वन्दना

तष्य नमो भगवते पुरुषाय भूम्ने विश्वाय विश्वगुरये पर्देवतायै ।

नारायणाय ऋषये च नरोत्तमाय हंसाय संयतणि निगमेश्वराय ॥

यददन निग आत्परह-प्रकाश सुद्दात्ति पत्र कवयोऽजेपरा यतन्तः ।

तै सक॑वादक्िवयप्रतिरूपदीलै वन्द पहापुरुषमात्मनि गृढ़बोधम्‌ ॥

( श्रोमद्धागवत १२ । ८ । ४७, ४९)

( महर्षि मार्कण्डेय कहते हैं--) भगवन्‌ ! आप अन्तर्यामी, सर्वव्यापक, स्वस्वरूप, जगद, परमागाध्य और

शुद्धस्वरूप है । समस्त लौकिक और वैदिक वाणो आपके अधीन रै । आप ही वेदमाकि प्रवर्तक हैं। मैं आपके इस

युगलस्वरूप नरोत्तम नर ओर ऋषिवर नारायणको नमस्कार करता हूँ। प्रभो ¦ वेदम आपका साक्षात्कार करानेवाला वह

ज्ञान पूर्णरूपसे विद्यमान है, जो आपके स्वरूपा रहस्य प्रकट करता है । ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े प्रतिभाशाली मनौषी उसे

प्राप्त कनेक यत्र करते रहनेपर धी मोहमें पड जाने हैं । आप भी ऐसे ल्मैल्मविहारी हैं कि विभिन्न मतवाले आपके सम्बन्धवे

जैसा सोचते-त्रिचारते दै, वैस) ही ज्ञीछ-स्वभाज और रूप ग्रहृण करके आप उनके सामने प्रकट हो जाते हैं। यास्तवयें

८ आप देह आदि समस्त उपाधियोंमें छिपे हुए विज्युद्ध विज्ञानपन ही है । हे पुरुषोत्तम ! मैं आपकी बन्दना करता हं ।

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य 36.3४

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