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ब्रह्माण्ड पुराण

(प्रथम खण्ड)

॥ कृत्य-समुद्देश्य ॥\

नमोनमः क्षये सृष्टौ स्थितौ सत्त्वमयाय वा ।

नमोंरजस्तमः सत्तवत्रिरूपाय स्वयंभुवे । १

जितं भशवता तेन हरिणा लोकधारिणा ।

अजेव विश्वरूपेण निगु णेन गणात्मना ॥\२

बरह्माणं लोककर्त्तारं सर्वेज्ञमपराजित्तम्‌ ।

प्रभु भूतभविध्यस्य साम्प्रतस्य च सरपतिभ्‌ ॥३

ज्ञानमप्रतिमं तस्य वैराग्यं च जगत्पतेः ।

ऐफ्वर्य चेव धर्मेएच सद्दिभः सेव्यं चलुष्टयम्‌ ॥४

इमास्नरस्य दे भावानिनत्यं सदसदात्सकात्‌ ।

अविनण्यः पुनस्तान्वे क्रियाभावा्थमीश्वर: ।५५

लोकङ्रल्लोकतंत्वज्ञो योगमास्थाय योगवित्‌ ।

असृजत्संङेभूतानि स्यावराणि चराणि च ॥६

तमहं विश्वकर्माणं सत्पति लोकसाक्षिणम्‌ ।

पुराणाख्यानजिज्नासुर्ग च्छामि शरणं विधुमु ॥७

संधार के सृजन, उसके पालन अथवा उसके संहार कालि में सत्व

स्वरूपं वाले के लिए ब्रारभ्वार नमस्कार है | रजोगुण-तभोगुण भौर सत्व-

गुण के तीस स्वरूप वाले भगवाध्‌ स्वयम्भू के लिश तभस्कार है जन्स ने

घारण करने वाले, विश्व के स्वरूप काले, गुणों से रहित और गुणों के रूप

वाले, विश्व के स्वरूप वाले, गणो से रहित और गणो के स्प वाले, लोकं

के धारण करने वाले उसे भगवाध्‌ हरि से जय प्राप्त किया है।२। समस्ल

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