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प० ६ सू० ३१ ४५

में तथा देवगणो में आपसे बढ़कर कोई नहीं है । जल को ढँककर सोने वाते वृत्रासुर का आपने हौ नाश किया

था और समुद्र की ओर जल प्रवाहित किया था ॥४ ॥

४६८४त्वपपो वि दुरो विषुचीरिनर दृक्हमरूजः पर्वतस्य ।

राजाभवो जगतश्चर्षणीनां साकं सूर्यं जनयन्‌ द्यामुषासप्‌ ॥५ ॥

है इद्धदेव ! आपन जलगशि के मार्ग चारों ओर खोलकर जल प्रवाहित किया । आपने मेघ के वन्न खोल

दिए । सूर्य , उषा एवं स्वर्ग को प्रकाशित करने वाते आप सम्पूर्ण विश्व के स्वामी वने ॥५ ॥

[ सूक्त - ३१ ]

[ ऋषि- सुहोत्र भारद्वाज | देवता- इन्द्र । छ्द- बटु; ४ शक्वरी । |

४६८५.अभूरेको रयिपते रयीणामा हस्तयोरधिथा इन्द्र कृष्टीः ।

वि तोके अप्सु तनये च सुरेऽवोचन्त चर्षणयो विवाचः ॥१ ॥

हे धनपति इन्द्रदेव ! आप हौ सम्पूर्ण धो के स्वामी हे । आप ही स्वयं अपने ्ाहवत से प्रजाओं को

धारण करते हैं। मनुष्यगण शत्रुओं को परास्त करने तथा पुत्र-पात्रादि एवं वर्षा के निमित्त आपकी स्तूति

करते हैं ॥१ ॥

४६८६ त्वद्धियेनदर पार्थिवानि विश्वाच्युता चिच्च्यावयन्ते रजांसि।

द्यावाक्षामा पर्वतासो वनानि विश्च दृक्हं भयते अज्मन्ना ते ॥२ ॥

है. इन्द्रदेव ! अन्तरिक्ष में उत्पतन मेघ. गिराने योग्य जल न होने पर भौ आपके भय से जल बरसाने

लगते है । अन्तरिक्ष, भूलोक, पर्वत, वन तथा समस्त चराचर जगत्‌ आपके आगमन से भयभीत हो

जाते हैं ॥२॥

४६८७त्वं कुत्सेनाभि शुष्णमिन्राशुषं युध्य कुयवं गविष्टौ ।

दश प्रपित्वे अध सूर्यस्य मुषायश्चक्रमविवे रपांसि ॥३ ॥

हे इन््रदेव ! आपने उस अति बलवान्‌ , उग्रवीर असुर “शुष्ण” को पराजित किया ¦ गोओ को बचाने के

लिए संग्राप में कुयव कासंहार किया। आपने सूर्यदेव के रध का चक्र हर लिया और पापी राक्षमो का

नाश किया ॥३॥

४६८८ त्वं शतान्यव शम्बरस्य पुरो जघन्थाप्रतीनि दस्योः । अशिक्षो यत्र शच्या

शचीवो दिवोदासाय सुन्वते सुतक्रे भरद्वाजाय गृणते वसूनि ।।४॥

हे बुद्धिमान इनद्रदेव ! ! आपने सोमरस अर्पित करने वाले ' दिवोदास" को एवं स्तोता 'भरद्वाज' को प्रज्ञा सहित

धन प्रदान किया । आपने 'शम्बर' असुर कौ सौ पुरियो को ध्वस्त किया ॥४ ॥

४६८९.स सत्यसत्वन्महते रणाय रथमा तिष्ठ तुविनृम्ण भीमम्‌।

याहि प्रपथिन्नवसोप प्द्विक्प्र च श्रुत श्रावय चर्षणिभ्यः ॥५ ॥

हे अक्षुण्ण सत्य-बल के धनी इन्द्रदेव ! आप महायुद्ध के लिए अपने भयंकर रथ प्रर चदे । हे सन्पार्गगामौ

इन्द्रदेव ! आप अपने रक्षा-साधनों सहित हमारे पास आकर, हमें यशस्वी बनायें ॥५ ॥ -

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