उत्तरख्ण्ड ]
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तत्पश्चात् त्रत करनेवाला मनुष्य मन और इन्द्रियोंको
वमे करके गीत, वाद्य, नृत्य और पुराण-पाठ आदिके
द्वारा रात्रिमें भगवानके समक्ष जागरण करे। फिर
द्रादशीके दिन उठकर स्नानके पश्चात् जितेद्धियभावसे
विधिपूर्वक श्रीविष्णुकी पूजा करे । एकादशीको पश्ञामृतसे
जनार्दनको नहलाकर द्वादशीको केवल दृधे खान
करानेसे श्रीहरिका सायुज्य प्राप्त होता है। पूजा करके
भगवानूसे इस प्रकार प्रार्थना करे--
अज्ञानतिपिरान्धस्य ब्तेनानेन. केशव ।
श्सीद सुमुखो भूत्वा ज्ञानदृष्टिप्रदों भव॥
(६४।३९)
“केशव ! मैं अज्ञानरूपी रतौधीसे अधा हो गया
हूँ। आप इस व्रतसे प्रसन्न हौ और प्रसन्न होकर मुझे
ज्ञानदृष्टि प्रदान करें ।'
इस प्रकार देखताओंके स्वामी देवाधिदेव भगवान्
गदाधरसे निवेदन करके भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंकों भोजन
कराये तथा उन्हें दक्षिणा दे। उसके बाद भगवान्
नारायणके शरणागत होकर बल्ल्लिश्रदेवकी विधिसे
पञ्चमहायज्ञोका अनुष्ठान करके स्ववं मौन हो अपने बन्धु-
बान्धवोंके साथ भोजन करे । इस प्रकार जो शुद्ध भावसे
पुण्यमय एकादज्ञीका व्रत करता है, वह पुनरावृत्तिसे रहित
वैकुण्ठधामको प्राप्त होता है ।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं--राजन् ! ऐसा
कहकर लक्ष्मीदेवी उस ब्राह्मणको वरदान दे अन्तर्धान हो
गयीं । फिर वह ब्राह्मण भी धनी होकर पिताके घरपर आ
गया । इस प्रकार जो "कमत्पर' का उत्तम त्रत करता है
तथा एकादकीके दिन इसका माहात्म्य सुनता है, बह सब
पापोंसे मुक्त हो जाता है।
युधिष्ठिर खोले-- जनार्दन ! पापका नाश और
पुण्या दानं करनेयाल्ली एकादशीके माहात्म्यका पुनः
वर्णन कीजिये, जिसे इस ल्जेकमें करके मनुष्य परम
पदको प्राप्त होता है ।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा--राजन् ! शुक या
कृष्णपक्षे जभी एकादशी प्राप्त हो, उसका परित्याग न
करे, क्योंकि बह मोक्षरूप सुखको बढ़ानेवाली है।
* पुरूषोत्तम मासकी “कमत्ठा' और "कामदा" एकादपीका माहात्य +
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कलियुगमें तो एकादशी ही भव-बन्धनसे मुक्त
करनेवाली, सम्पूर्ण मनोवाज्छित कामनाओंको देनेवाली
तथा पापोंका नादा करनेवाली है। एकादशी रखिवारको,
किसी मद्कलपय पर्वके समय अधवा संक्रान्तिके ही दिन
क्यों न हो, सदा हो उसका व्रत करना चाहिये । भगवान्
विष्णुके प्रिय भर्त्तरि एकादज्ीका त्याग कभी नहीं करना
चाहिये। जो हाख्नोक्त विधिसे इस लोकम एकादशीका
त्रत करते हैं, ये जीवन्मुक्त देखे जाते है, इसमें तनिक भी
सन्देह नहीं है ।
युधिष्ठिरने पृषछठा-- श्रीकृष्ण ! वे जीवन्मुक्त कैसे
हैं ? तथा विष्णुरूप कैसे होते हैं ? मुझे इस विषयको
जाननेके लिये बड़ी उत्सुकता हो रहो है ।
भगवान् श्रीकृष्ण जोले--राजन् ! जो
कलियुगे भक्तिपूर्वक क्ाखरीय विधिके अनुसार
निर्जलः रहकर एकादशीका उत्तम ब्रत करते है, ये
विष्णुरूप तथा जीवन्मुक्त क्यो नहीं हो सकते हैं?
एकादश्नीव्रतके समान सब पापोंकों हरनेवाल्म्र तथा
मनुष्योंकी समस्त कामनाओंको पूर्णं करनेवाला पवित्र
त्रत दूसरा कोई नहों है। टक्ामीको एक यार भोजन,
एकादशीको निर्जल चत तथा द्वादशीको पारण करके
मनुष्य श्रीविष्णुके समान हो जाते हैं। पुरुषोत्तम मासके
द्वितीय पक्षकी एकादशीका नाम “कामदा' है। जो
श्रद्धापूर्वक 'कामदा'के शुभ व्रतका अनुष्ठान करता है,
वह इस लोक और परल्त्रेकमें भी मनोवाज्छित वस्तुको
पाता है। यह 'कामदा' पवित्र, पावन, महापातकनाहिनी
तथा त्रत कनेवास्तैको भोग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाली
है। नृपश्रेष्ठ ! “कामदा' एकादज्शीको विधिपूर्वकं पुष्प,
धूप, नैवेध्ध तथा फल आदिके द्वारा भगवान्
पुरुषोत्तमकी पूजा करनी चाहिये । त्रत करनेवाल्त्र वैष्णव
पुरुष दशमी तिधिको काँसके बर्तन, उड़द, मसूर. चना,
कदो, साग, मधु, पराया अन्न, दो बार भोजन तथा
मैथुन--इन दसोंका परित्याग करे। इसी प्रकार
एकादजीको जूआ, निद्रा, पान, दाँतुन, परायी निन्दा,
चुगली, चोरी, हिंसा, मैथुन, क्रोध और असत्य-
भाषण--इन म्यारह दोषोंकों त्याग दे तथा द्वादश्ीके