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राजा इन्द्रद्युम्न भगवान् विष्णुके भक्त, सत्यपरायण,
क्रोधको जीतनेवाले, जितेन्द्रिय, अध्यात्मविद्यातत्पर,
न्यायप्राप्त युद्धके लिये उत्सुक तथा धर्मपरायण
थे। इस प्रकार सम्पूर्ण गुणोंकी खानरूप राजा
इ्द्रद्युप्र सारी पृथ्वीका पालन करते थे। एक बार
उनके मनमें भगवान् विष्णुकी आराधनाका विचार
उठा। वे सोचने लगे--' मै देवदेव भगवान् जनार्दनकी
किस प्रकार आराधना करूँ? किस क्षेत्रमें, किस
नदीके तटपर, किस तीर्थमें अथवा किस आश्रममें
मुझे भगवान्की आराधना करनी चाहिये?” इस
प्रकार विचार करते हुए वे मन-ही-मन समूची
पृथ्वीपर दृष्टिपात करने लगे। जो-जो पापहारी
संक्षिप्त नारदपुराण
तीर्थ हैं, उन सबका मानसिक अवलोकन और
चिन्तन करके अन्तर्मे वे परम विख्यात मुक्तिदायक
पुरुषोत्तमक्षेत्रमें गये। अधिकाधिक सेना और वाहनेकि
साथ पुरुषोत्तमक्षेत्रमें जाकर राजाने विधिपूर्वक
अश्वमेध-यज्ञका अनुष्ठान किया और उसमें पर्याप्त
दक्षिणाँ दीं । तदनन्तर बहुत ऊँचा मन्दिर बनवाकर
अधिक दक्षिणाके साथ श्रीकृष्ण, बलभद्र ओर
सुभद्राको स्थापित किया। फिर उन पराक्रमी नरेशने
विधिपूर्वक पञ्चतीर्थं करके वहाँ प्रतिदिन स्नान,
दान, जप, होम, देवदर्शन तथा भक्तिभावसे भगवान्
पुरुषोत्तमकी सविधि आराधना करते हुए देवदेव
जगन्नाथके प्रसादसे मोक्ष प्राप्त कर लिया।
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राजा इन्द्रद्य॒ज्ञके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
मोहिनी बोली--मुनिश्रेष्ठ | पूर्वकालमें महाराज
इन्द्रह्यम्नने श्रीकृष्ण आदिकी प्रतिमाओंका निर्माण
कैसे कराया? भगवान् लक्ष्मीपति उनपर किस
प्रकार संतुष्ट हुए? ये सब बातें मुझे बताइये।
पुरोहित वसुने कहा- चारुनयने ! वेदके तुल्य
माननीय पुराणकी बातें सुनो । मैं श्रीकृष्ण आदिकी
प्रतिमाओंके प्रकट होनेका प्राचीन वृत्तान्त कहता
हूँ, सुनो। राजा इन्द्रधुप्रके अध्वमेध नामक महायज्ञके
अनुष्ठान और प्रासाद-निर्माणका कार्य पूर्ण हो
जानेपर उनके मनमें दिन-रात प्रतिमाके लिये
चिन्ता रहने लगी। वे सोचने लगे-'कौन-सा
उपाय करूँ, जिससे सृष्टि, पालन और संहार
करनेवाले, सम्पूर्ण लोकोंके उत्पादक देवेश्वर भगवान्
पुरुषोत्तमका मुझे दर्शन हो'--इसी चिन्तामें निमग्र
रहनेके कारण महाराजको न रातमें नींद आती थी,
न दिनमें। वे न तो भाँति-भाँतिके भोग भोगते और
न सत्रान एवं शृङ्गार ही करते थे। इस पृथ्वीपर
पत्थर, लकड़ी अथवा धातु, किससे भगवान्
विष्णुकी योग्य प्रतिमा हो सकती है, जिसमें
भगवानके सभी लक्षणोंका अड्जून ठीक-ठीक हो
सके । इन तीनोंमेंसे किसकी प्रतिमा भगवान्को
प्रिय तथा सम्पूर्ण देवताओंद्वारा पूजित होगी,
जिसकी स्थापना करनेसे भगवान् प्रसन्न हो
जायँगे।' इस प्रकारकी चिन्तामें पड़े-पड़े उन्होंने
पाञ्चरात्रकौ विधिसे भगवान् पुरुषोत्तमका पूजन
किया और अन्तमें ध्यानमप्र हो राजाने इस प्रकार
स्तुति प्रारम्भ की।
इन्द्रयु्न बोले--वासुदेव! आपको नमस्कार
है। आप मोक्षके कारण हैं, आपको मेरा नमस्कार
है। सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी परमेश्वर! आप इस
जन्म-मृत्युरूपी संसार-सागरसे मेरा उद्धार कीजिये।
पुरुषोत्तम! आपका स्वरूप निर्मल आकाशके
समान है। आपको नमस्कार है। सबको अपनी
ओर खीचनेवाले संकर्षण! आपको प्रणाम है।
धरणीधर! आप मेरी रक्षा कीजिये। भगवन्!
आपका श्रीअङ्ग मेघके समान श्याम है। भक्तवत्सल!
आपको नमस्कार है। सम्पूर्ण देबताओंके निवासस्थान !
आपको नमस्कार है। देवप्रिय ! आपको प्रणाम है।