डंडे ऋग्वेट संहिता भाग - २
इस समय पकाने योग्य पुरोडाश पकाये जाते हैं । ताजा तैयार किया जाता है । ऋत्विग्गण इन्द्रदेव की स्तुति
करते हैं । सोपरस निकालकर उसमे दुग्धादि श्रेष्ठ पदार्थ मिलाये जाते हैं । वे स्तुति करते हुए इद्धदेव का सामीप्य
प्राप्त करते हैं ॥४ ॥
४६७८. न ते अन्तः शवसो धाय्यस्य वि तु बाबधे रोदसी महित्वा ।
आ ता सूरिः पृणति तूतुजानो युथेवाप्सु समीजमान ऊती ॥५॥
हे इन्द्रदेव आपका बल अनन्त है । द्याचा-पृथिवी आपके बल से भयभीत हो कंपते ह । जिस तरह गो
पालक गौओं को तृप्त करता है, वैसे ही हम् स्तुति करते हुए इस यज्ञ मे, आपको तृप्त करने के लिए उत्तम आहुतियाँ
समर्पित करते रै ॥५ ॥
४६७९. एवेदिन्द्रः सुहव ऋष्वो अस्तूती अनूती हिरिशिप्रः सत्वा ।
एवा हि जातो असमात्योजाः पुरू च वृत्रा हनति नि दस्यून् ॥६॥
रेष्ठ मासिका अथवा सुन्दर मुकुट धारण करने वाते महान् इन्द्रदेव सुखपूर्वक आहूत किये जा सकते हैं ।
वे स्वयं आयें अथवा न आये, स्तोता ओ को धन प्रदान करते हो हैं । इस प्रकार पराक्रमी महावीर इन्द्रदेव अनुपम
तेज एवं बल से बहुत से वृत्रासुर जैसे असुरे तथा शत्रुओं का नाश करते हैं ॥६ ॥
[ सूक्त - ३० |
[ ऋषि- भरद्वाज़ वार्हस्यत्य । देवता- इन्द्र । छन्द विश्रप । |
४६८०. भूय इद्रावृधे वीर्याय एको अजुर्यो दयते वसूनि।
प्र रिरिचे दिव इन्द्रः पृथिव्या अर्धमिदस्य प्रति रोदसी उपे ॥९॥
पराक्रम करने के लिए पुनः वे महावीर (इन्द्रदेव) तत्पर हैं । वे भ्रष्ट एवं अजर इन्द्रदेव धन देते हैं । वे
द्यावा-पृथिवी से भी बड़े हैं । द्यावा-पृथिवी इद्धदेव के आधे भाग के तुल्य हैं ॥१ ॥
४६८१. अधा मन्ये बृहदसुर्यमस्य यानि दाधार नकिरा मिनाति।
दिवेदिवे सूर्यो दर्शतो भूद्वि सद्मान्युर्विया सुक्रतुर्धात् ॥२ ॥
इन इन्द्रदेव के बल के महत्त्व को हम मानते हैं । जो कार्य इन्धदेव करते हैं, उनको नष्ट करने में कोई समर्थ
नहीं है । उत्तम कर्म करने वाले इद्धदेव ने भुयनों का विस्तार किया है । इन्द्रदेव के प्रभाव से हो सूर्यदेव प्रतिदिन
उदित होते हैं ॥२ ॥
४६८२.अद्या चित्नू चित्तदपो नदीनां यदाभ्यो अरदो गातुमिन्द्र ।
नि पर्वता अद्मसदो न सेदुस्त्वया दृक्हानि सुक्रतो रजांसि ॥३ ॥
है इद्धदेव ! आपने हौ आज भी और पहले भी नदियों के जल को प्रवाहित होने के लिए मार्गों का निर्माण
किया । जिस तरह भोजन के निमित्त बैठा मनुष्य स्थिर होकर बैठता है, वैसे ही ये पर्वत आपने स्थिर किये हैं । हे
श्रेष्ठ कर्म करने वाले इन्दरदेव ! आपने सब लोक सुदृढ़ किए हैं ॥३ ॥
४६८ ३.सत्यमित्तन्न त्वावाँ अन्यो अस्तीद्ध देवो न मर्त्यो ज्यायान् ।
अहन्नहिं परिशयानमर्णोऽवासृजो अपो अच्छा समुद्रम् ॥४॥
हे इनद्रदेव ! आपके समान अन्य कोई देव नही है, यह सत्य ही है । आपके समान मनुष्व भी नही है । मनुष्यों