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प॑०६ सू० २९ ४३

४६७१.युयं गावो मेदयथा कृशं चिदश्रीरं चित्कृणुथा सुप्रतीकम्‌ ।

भद्रं गृहं कृणुथ भद्रवाचो बृहद्वो वय उच्यते सभासु ॥६ ॥

हे गौओ ! आप हमे बलवान्‌ बनाएँ । आप हमारे रुग्ण एवं कृश शरौरो को सुन्दर स्वस्थ बनाएँ । आप अपनी

कल्याणकारी ध्वनि से हमारे घरों को पवित्र करें । यज्ञ मण्डप में आपके दरार प्राप्त अन्न का हो यशोगान होता है ॥६ ॥

४६७२.प्रजावती: सुयवसं रिशन्तीः शुद्धा अपः सुप्रपाणे पिबन्तीः ।

मा वः स्तेन ईशत माघशंस: परि वो हेती रुद्रस्य वृज्याः ॥७ ॥

हि गौओ ! आप बड़ों से युक्त हों । उत्तम घास एवं सुखकारक स्वच्छ जल का पान करें । आपका पालक

चोरी करने बाला न हो । हिंसक पशु आपको कष्ट न दे । परमेश्वर का कालरूप अस्त्र आपके पास हौ न आए ॥७ ॥

४६७३.उपेदमुपपर्चनमासु गोषूप पृच्यताम्‌। उप ऋषभस्य रेतस्युपेन्द्र तब वीर्ये ॥८ ॥

हे इन्द्रदेव ! आपके वीर्य (पराक्रम) में बलशालो का ओज संयुक्त हो । इन गौ ओं के उत्पादक (किरणों के

प्रवाहो) के साध उठ्रेरक (केटेलेटिक एजैन्ट या शक्तिवर्धक तत्व) संयुक्त हों ॥८ ॥

[ इच्देव का पराप उनकी शक्ति किरणों-गौओं के भास्यप से ही प्रकट हाता है। जिस प्रकार पटार्थजनिति किरणों

(एक्सो, लेजर आदि) को उपकरणों के दाग प्रभावशाली बनाया जाता है, उसी प्रकार ऋषिणण प्रकृतिगत किरण-प्रवाहों को

मंत्रों एवं यज्नीय प्रयोगों द्वारा प्रधावशालों वनति रहे हैं। |

[ सूक्त - २९ ]

[ ऋषि- भरद्वाज बार्हस्पत्य । देवता- इन्द्र । छल्द- तिष्टपू। ]

४६७४. इन्द्रं वो नर: सख्याय सेपुर्महो यन्तः सुमतये चकानाः ।

महो हि दाता वन्रहस्तो अस्ति महाम्‌ रण्वमवसे यजध्वम्‌ ।।९ ॥

हे पुष्यो ! आपके नेता (यज्ञ के ऋत्विक्‌ अथवा समाज के अग्रणी) श्रेष्ठ बुद्धि वाले एवं उदार हैं । वे स्तोतरो

का गायन करते हुए, सखा भावे से इन्द्रदेव की सेवा करते हैं । वज़धारी इद्धदेव चहुत धन देते रै; अतएव रमणीव

एवं महान्‌ इद्धदेव का, अपनी रक्षा के लिए पूजन करें ॥६ ॥

४६७५. आ यस्मिन्हस्ते नर्या मिमिक्षुरा रथे हिरण्यये रथेष्ठाः ।

आ रश्मयो गभस्त्योः स्थुरयोरा्वन्नश्वासो वृषणो युजानाः ॥२ ॥

जिन इन्द्रदेव के पास मनुष्यों का हितकारी धन है, जो स्वर्ण-रथ पर चढ़ते है एवं जिनके पुष्ट हाथों मे घोड़ो

कौ (नियंत्रक) लगाम है, जिर रथ मे जुते हुए अश् मार्ग पर ले जाते हैं; ऐसे इन्द्रदेव की हम स्तुति करते हैं ॥२ ॥

४६७६. श्रिये ते पादा दुव आ मिप्मिक्षुर्थुष्णुर्वज्ी शवसा दक्षिणावान्‌ ।

वसानो अत्कं सुरभि दृशे कं स्वशरणं नृतविषिरो बभूथ ॥३॥

हे इनद्रदेव ! आप वत्रधारण करके शत्रुओं को परास्त करते द । ऐश्वर्य की कामना से हम (भरद्वाज) आपके

चरणों में सेवा समर्पित करते हैं । हे सर्वप्रधान इन्द्रदेव ! आप सुरभित आवरण धारण करते रै । सबके लिए

दर्शनीय आप सूर्यदेव कौ तरह सबका उत्साह बढ़ाते हैं ॥३ ॥

४६७७. स सोम आमिश्लतमः सुतो भृद्यस्मिन्पक्तिः पच्यते सन्ति धानाः

इन्द्रं नरः स्तुवन्तो ब्रह्मकारा उक्था शंसन्तो देववाततमाः ॥४ ॥

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