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काशीलण्ड-उत्तराथ ] + ध्रीचर्मश्वर लिकुका माहात्म्य, घर्मपीठका गौरव #

६७९

स्वरूप हैं । ओ आपके चरणायविन्दोफी शरण ठेते ई, पेते

भक्ति लिये आप भीङृण्ड हैं--उनपर आयी हुई विपचिरूषी

कस्म विषको पी जानेवाले हैं। चान्त ! शम्भो | शङ्कर !

अन्ग्रकल्मविभूषण । फ्नाकपाणे ! सपोंको आभूषणके रुपमें

धारण करनेवाले, आपको नमस्कार दे । प्रभो ! यही धन्य दै,

जो आपमें भक्ति रखता है । वही पुष्यात्मा ह, जो आपकी

पूजा करनेवाछा है । अनन्तशक्ते | मेरे-जैसा अद्य बुद्धि-

वेमवसे युक्त कौन मनुष्य यद आपकी स्तुति कर सकता टै ।

प्राचीन वेदयाणीके किये मी जो अगम्य हैं, ऐसे आपकी

स्तुति केवल नमस्कारमात्र ही दै ।

स्कन्दजी कहते हँ--ऐसा ककर यमराजने डें०

नमः शिवायः इष मन्त्रका उच्चारण करते हुए भगवान्‌

शङ्करो सहस बार प्रणाम किया । तदनन्तर परमेश्वर शिवने

यमगरजक़ों नमस्‍्कास्से रोककर इस प्रकार बरदान दिया--

ध्यूर्यनन्दन | तुम ( कर्म और स्वरूपले तो धर्म हो ही, )

नामसे भी (धर्मराजः दो जाओ । भजते तुम समस्त चराचर

प्राणियोंके धर्माधरमके निर्णयर्मे भेरे दवाय नियुक्त सेद्ध मेरी

आशासे सबका शासन करो | दुम दक्षिण दिदाके अधिपति

और समस्त जीवोंके कर्मके साक्षी दोओ । उत्तम और

अपम मनुष्य तुम्हारे दिखाये हुए भागते हीं कर्मानुसार

गति प्राप्त करें । धर्म ! मुझमें भक्ति रखते हुए तुमने जे

अहो मेरे लिक्वविप्रदड़ी आराधना की रै, उसके दर्शन

स्पश और पूजनसे मनुष्योंडो शीप्र सिद्धि प्राप्त दोगी।

जो भिशदध बदवाल पुय बुरे आगे इस घ॒र्मतीर्थमें

स्नान करके एक बार भी धर्मेश्वसर्का दर्शन करेगा, उसके

श्रमस्त पु्पायोरी सिद्धि उससे दूर नहीं है। जो मनुष्य

कार्तिक मासके शुक्ल पक्षकी अष्टमी तिथिकों उपयासपूर्यक

धर्मश्वर सीर्थकी यात्रा करेंगे तथा राजिका मान्‌ उत्सवके

साथ जागरण करेंगे; मे पिर इस पृष्वीपएर जन्म नहीं लेंगे |?

ऐसा कहकर परम सुखदायक भगवान्‌ शिवने अपने

इथोंसे धर्मराजका स्पर्श क्रिया | उनके करस्पर्शननित

सुखे आनन्दमग्र हो धर्मराजने महादेवजीषे कश--

स्ववश ! फ्रुणानिघान ! ईश्वर ! जब आया प्रत्यक्ष दर्शन

मिल गया तथ मुझे दूसरे किसी वरकी स्या आषर्पकता है १

नाय ! जिनको वेद भी भलीमाौति नहीं जानते तथा येद-

पुरुष जश्मा और विष्णु भी नहीं जानते, उनसे भी यदि मैं

वर पाने योग्य हूँ; तो यी प्रार्चना करता हूँ कि ये जो

पशक्षियोंके मधुर बोली थ्रोलनेबाके बच्चे हूँ, जिनका कि भरे

सामने जन्म हुआ है; इनकी उत्पत्तिके समय रोगसे पीड़ित

हो इनकी माता शुक्की सृत्युकों श्रास हुईं और इनके पिता

शको याजने खा डाला है। अनाथनाथ ! मेरे द्वारा रक्षित

इन असाव बच्चोंकों आप वरदान दीजिये । अगस्त्य | इस

प्रकार धर्मराजा परोपकारयुक्त निर्मठ वचन सुनऋर

शङ्कएजीने उन पक्षियोंकों बुछाया और कद्ा--“पक्षियों ! तुम

गोरो, तुम्हरे लिये कौन-सा वरदान देना आाहिये।?

पश्ती वोले--संसारबन्धनका नाश रूरनेबाछे परमेश्वर !

आपको नमस्कार दे । अनाथनाथ ! स्वे ! बिनेश्र ! हम

वश्षीकी थोनिमें जन्म केकर भी जो आपका प्रत्यक्ष दर्शन कर

सके हैं तथा आपकी कृपादहष्टिके भाजन हो सके हैं, इससे

पढ़कर मनोयाम्छित वर और स्या दो स्ना है ! गिरीश !

छोकमें उद्यम करनेवाके छोगोंकों सदा सैकड़ों तम मित

करें, परेतु सवते महान्‌ लाभ यही है कि आपका प्रत्यक्ष

दर्शन हो। नाथ ! यह जो कुछ दिखायी देता है; सब्र क्षणभह्लुर

है। एकमात्र आप ही अथिनाशी हैं और आपकी आराधना

मी अक्षय है । इन तपस्वीदारा की हुई आक्के भीलिश्की

पूजा देखनेसे इस समय हमें आने वरिचित्र-बिचित्र करोड़ों

जन्मोंका स्मरण हों आया है । मद्ेश्वर ! हमने दीर्षकार-

तक देक्योनिका सुस्त भी प्राप्त किया है । छीस्मपूर्यक

सदलं दिव्यान्ननाओंका उपभोग किया है। अम्लु७ दानव;

नाग; राक्षस, किन्नर, विदाघर और गन्धरवोद्धी योनि भी हमने

प्रात की ३। मनुप्ययोनिमें जन्म छेकर राज्यका भी उपमोग

किया है | जलमें जछचर ओर खलम स्थछूचर भी हमें होना

पढ़ा है। परंद शम्भो ! इस योनिसे उस योनिमें और उस

योनिष शी तीसरी योनिम भक्ते दए इमने कदी भी

छिञचिन्मात्र भी सुख नर्द एया है।इस समप धर्मेश्वर्के

दर्शनसे और सूर्यनन्दन यमी तयस्यारूपी अप्रिकी ज्यालासे

हमारे सरे पाप जट गये हैं और इम आपका प्रत्यक्ष दर्शन

करके कृतकृत्य हो गये ह । भगवन्‌ ! अब आप हमें वह

शान प्रदान करट, जिससे मायामय कथने केंपे हुए. हम

सब रोग उससे मुक्त हो जायें | हमें इन्द्र, चन्द्र तथा

अन्य ङ्स देंबताकां छोक नहीं चाहिये | आपका सामीप्य

प्राप्त होनेसे हम सब लोकी स्पितिकों अच्छी तरद आन गये

हैं | समयानुसार आपके आनन्दवन--काशीमें शारीरका

त्याग करना संसारम्न्पनके परिनोशंकां कार्ण तथा परम

उत्तम शन है । प्रमो ! तिर्य्पोनिमें पढ़े हुए हम पक्षी मी

धर्मराज़ी तप्स्पासे विकल्पट्टीन शानडे पात्र हो गये हैं ।

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