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+ श्रीमद्धागवत +

[ अण्ड२

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बयालीसवाँ अध्याय

कुब्जापर कृपा, धनुषभङ्ग

श्रीशुकदेवजी कहते हैं--परीक्षित्‌ ! इसके बाद

भगवान्‌ श्रीकृष्ण जब अपनी मण्डलीके साथ राजमार्गसे

आगे बढ़े, तब उन्होंने एक युवती ख्लीकों देखा। उसका

मुँह तो सुन्दर था, परन्तु वह शरीरसे कुबड़ी थी। इसीसे

उसका नाम पड़ गया था 'कुब्जा'। वह अपने हाथ

चन्दनका पात्र लिये हुए जा रही थी। भगवान्‌ श्रीकृष्ण

प्रेमरसका दान करनेवाले हैं, उन्होंने कुब्जापर कृपा करनेके

लिये हँसते हुए उससे पूछ-- ॥ १ ॥ 'सुन्दरी ! तुम कौन

हो? यह चन्दन किसके लिये ले जा रही हो?

कल्याणि ! हमें सब बात सच-सच बतला दो । यह उत्तम

चन्दन, यह अङ्गराग हमें भी दो। इस दानसे शीघ्र ही

तुम्हारा परम कल्याण होगा' ॥ २॥

उक्टन आदि लगानेवाली सैरन्धी कुब्जाने

कहा -- परम सुन्दर ! मैं कंसकी प्रिय दासी हूँ । महाराज

मुझे बहुत मानते है । मेरा नाम त्रिवक्रा (कुब्जा) है । मैं

उनके यहाँ चन्दन, अङ्गराग लगानेका काम करती हूँ। मेरे

द्वारा तैयार किये हुए, चन्दन ओर अङ्गराग भोजराज

कसको बहुत भते है। पलत आप दोनोंसे बढ़कर उसका

और कोई उत्तम पात्र नहीं है' ॥ ३ ॥ भगवानके सौन्दर्य,

सुकुमारता, रसिकता, मन्दहास्य, प्रेमालाप और चारु

चितवनसे कुब्जाका मन हाथसे निकल गया । उसने

भगवानूपर अपना हदव न्योछ्मवर कर दिया । उसने दोनों

भाइयोंको वह सुन्दर और गाढ़ा अङ्गराग दे दिया ॥ ४ ॥

तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने साँवले शरीरपर पीले रंगका

ओर बलरामजीने अपने गोरे शरीरपर लाल रंगका

अद्गराग लगाया तथा नाभिसे ऊपरके भागे अनुरञ्जित

होकर वे अत्यन्त सुशोभित हुए ॥ ५॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण

उस कुब्जापर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने दर्शनका

प्रत्यक्ष फल दिखलानेके लिये तीन जगहसे टेढ़ी किन्तु

सुन्दर मुखवालौ कुब्जाकों सीधी करनेका विचार

किया ॥ ६॥ भगवानने अपने चरणोंसे कुब्जाके पैस्के

दोनों पंजे दबा लिये और हाथ ऊँचा करके दो अगुलियाँ

उसकी ठोड़ीमें लगायीं तथा उसके शरौरको तनिक उचका

दिया ॥ ७॥ उचकाते ही उसके सारे अङ्ग सीधे और

और कंसकी घबड़ाहट

समान हो गये । प्रेम और मुक्तिके दाता भगवानके स्पर्शसे

वह तत्काल विशाल नितम्ब तथा पीन पयोधरोंसे युक्त

एक उत्तम युवती बन गयी ॥ ८॥

उसी क्षण कुब्जा रूप, गुण और उदारतासे सम्पन्न

हो गवी । उसके मनमें भगवानके मिलनकी कामना जाग

उठी । उसने उनके दुपट्रेका छोर पकड़कर मुसकराते हुए

कहा-- ॥ ९॥ 'वीरशिरोमणे ! आइये, घर चलें । अब

मैं आपको यहाँ नहीं छोड़ सकती। क्योंकि आपने मेर

चित्तको मथ डाला है। पुरुषोत्तम ! मुझ दासीपर प्रसन्न

होइये' ॥ १० ॥ जब बलरामजीके सामने ही कुब्जाने इस

प्रकार प्रार्थना की, तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने साथी

ग्वालबालोंके मुँहकी ओर देखकर हँसते हुए उससे

कहा-- ॥ ११॥ 'सुन्दरी ! तुम्हारा घर संसारी लोगोंके

लिये अपनी मानसिक व्याधि मिटानेका साधन है। मैं

अपना कार्य पूरा कस्के अवश्य वहाँ आकँगा।

हमारे-जैसे बेघरके बटोहिर्योको तुम्हारा ही तो आसरा

है" ॥ १२ ॥ इस प्रकार मीठी-मीठी बातें करके भगवान्‌

उनके दर्शनमात्रसे स्लियोकि हृदयमें

मिलनकी आकाङ्क्षा जग उठती थी । यहाँतक कि उन्हें

अपने शरीरकी भी सुध न रहती । उनके वस्त्र, जूड़े और

कंगन ढीले पड़ जाते थे तथा वे चित्रलिखित मूर्वियोकि

समान ज्यो-की -त्यौ खड़ी रह जाती थीं॥ १४ ॥

इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण पुस्वासियोंसे

घनुषयज्ञका स्थान पूछते हुए रंगशालामें पहुँचे और वहाँ

उन्होंने इन्द्रघनुषके समान एक अद्भुत धनुष देखा ॥ १५॥

उस धनुषे बहुत-सा धन लगाया गया था, अनेक

बहुमूल्य अलड्जारोंसे उसे सजाया गया था। उसकी खूब

पूजा की गयी थी और बहुत-से सैनिक उसकी रक्षा कर

रहे थे। भगवान्‌ श्रीकृष्णने रक्षकोंके रोकनेपर भी उस

धनुषको बलात्कारसे उठा लिया॥ १६॥ उन्होंने सबके

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