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पऽ ४ सुर ४९ ७

३५०४. इन्द्रा युवं वरुणा भूतमस्या धियः प्रेतारा वृषभेव धेनोः ।

सा नो दुहीयद्यवसेव गत्वी सहस्रधारा पयसा मही गौ: ॥५ ॥

है इन्द्र तथा वरुणदेवो ! जिस प्रकार वृषभ गाय से प्रीति करते हैं, उसी प्रकार आप दोनों हमारी प्रार्थनाओं

के प्रेमी हों जैसे एक महान्‌ गाय घास आदि खाकर सहस्र धाराओं वाते दुग्ध को दोहन के लिए प्रस्तुत रहती

है, उसी प्रकार वे प्रार्थनाएँ हमारी अभिलाषाओं को पूर्णता प्रदान करें ॥५ ॥

३५०५. तोके हिते तनय उर्वरासु सूरो दृशीके वृषणश्च पौस्ये ।

इन्द्रा नो अत्र वरुणा स्यातामवोभिर्दस्मा परितक्म्यायाम्‌ ॥६ ॥

हे इनदर ओर वरुणदेवो ! आप अपने रक्षण - साधनों से सम्पन्न होकर रिपुओं का विनाश करने के लिए रात्रि

में भी तैयार रहें, जिससे हम लोग पुत्र-पौत्र और उपजाऊ जमीन से लाभान्वित हो सकें । लम्बे समय तक सूर्यदेव

का दर्शन कर सकें तथा सन्तान उत्पन्न करने कौ साम्यं प्राप्त कर सकें ॥६ ॥

३५०६. युवामिद्ध्वसे पूर्व्याय परि प्रभूती गविषः स्वापी ।

वृणीमहे सख्याय प्रियाय शूरा मंहिष्ठा पितरेव शम्भू ॥७ ॥

हे इन्र ओर वरुणदेवो ! गौ ओं की कमना करने वाले हम मनुष्य आप दोनों के पुरातन संरक्षण की अभिलाषा

करते है । आप दोनों बलशालौ, पराक्रमी तथा अत्यन्त वन्दनीय है । हम मनुष्य आप दोनों के समीप हर्ष्रदायक,

पिता के समान मित्रता तथा प्रेम की प्रार्थना करते है ॥७ ॥

३५०७. ता वां धियोऽवसे वाजयन्तीराजिं न जम्मुर्युवयू: सुदान्‌ ।

श्रिये न गाव उप सोममस्थुरिन्रं गिरो वरूणं मे मनीषाः ॥८ ॥

हे श्रेष्ठ फल प्रदाता इन्द्र तथा वरुणदेवो ! जिस प्रकार आपके उपासक युद्ध में अपनी सुरक्षा के लिए आपके

समीप आगमन करते हैं, उसी प्रकार रक्षण ओर घन आदि की अभिलाषा करने वाली हमारी प्रार्थनाएँ आपके

समीप गमन करती हैं । जिस प्रकार गौएँ तेज की अभिवृद्धि के निमित्त सोमरस के सीप गमन करती हैं, उसी

प्रकार विवेकपूर्वक की गई हमारी प्रार्थनाएँ आप दोनों के समीप गमन करें ॥८ ॥

३५०८. इमा इन्द्रं वरुणं मे मनीषा अग्मन्नुप द्रविणमिच्छमाना: ।

उपेषस्थुर्जोषटार इव वस्वो रघ्वीरिव श्रवसो भिक्षमाणाः ॥९ ॥

जिस प्रकार ऐश्वर्च की कामना करने वाले लोग धनिक के समीप गमन करते हैं, उसो प्रकार हमारी

प्रार्थनाएँ, ऐश्वर्य-लाभ की कामना से इन्द्र और यरुणदेयों के समीप गमन करती हैं । जिस प्रकार अन्न की याचना

करने वाले भिश्षुक दानियों के समीप गमन करते हैं, उसी प्रकार हमाएँ प्रार्थनाएँ इन्द्र तथा वरुणदेवों के समीप

गमन करती है ॥९ ॥ |

३५०९. अश्व्यस्य त्मना रथ्यस्य पुष्टेनित्यस्थ रायः पतयः स्याम ।

ता चक्राणा ऊतिभिर्नव्यसीभिरस्मत्रा रायो नियुतः सचन्ताम्‌ ॥९० ॥

हम लोग अपने बल के द्वारा ही अश्वों, रथो, पोषक - पदार्थों तथा अविनाशी ऐश्वर्यों के अधिपति हों ।

गमनशील वे दोनों देव अपने नये रक्षण साधनों के द्वारा हमें अश्वो तवा घनो से संयुक्त करें ॥१० ॥

३५१०, आ नो बृहन्ता बृहतीभिरूती इन्द्र यातं वरुण वाजसातौ ।

यद्िद्यवः पृतनासु प्रक्रीकरान्तस्य वां स्याम सनितारं आजेः ॥११ ॥

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