५१४ * श्रीमद्धागवत + [अर्श
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चलता रहे ॥ १९॥ करनेके कारण लुटेरे मेरे बच्चोंक्ने लूटकर लिये जा रहे हैं ।
उर्वशीने कहा--'राजन् ! आप सौन्दर्यके मूर्तिमान् मैं तो मर गयी । देखो तो सही, यह दिनमें तो मर्द बनता
स्वरूप हैं। भला, ऐसी कौन कामिनी है जिसकी दृष्टि और
मन आपमें आसक्त न हो जाय ? क्योंकि आपके समीप
आकर मेरा मन रमणकी इच्छसे अपना धैर्य खो बैठा
है॥ २० ॥ राजन् ! जो पुरुष रूप-गुण आदिके कारण
प्रशंसनीय होता है, वही सियोको अभीष्ट होता है। अतः
मैं आपके साथ अवश्य विहार करूंगी । परन्तु मेर प्रेमी
महाराज ! मेरी एक शर्त है । मै आपको धरोहरके रूपमे
भेदके दो बच्चे सौपती हूँ। आप इनकी रक्षा
करना॥ २९॥ वीरशिरोमणे ! मैं केवल घी खाऊँगी और
मैथुनके अतिरिक्त और किसी भी समय आपको वस्हीन
न देख सकूँगी।' परम मनस्वी पुरूरवाने 'ठीक है'--ऐसा
कहकर उसकी शर्त स्वीकार कर ली॥ २२॥ और फिर
उर्वशीसे कहा--'तुम्हारा यह सौन्दर्य अद्भुत है। तुम्हारा
भाव अलौकिक है। यह तो सारी मनुष्यसृष्टिको मोहित
करनेवाला है। और देवि ! कृपा करके तुम स्वयं यहाँ
आयी हो । फिर कौन ऐसा मनुष्य है जो तुम्हारा सेवन न
“करेगा ?' ॥ २३ ॥
परीक्षित् ! तब उर्वशी कामशाख्त्रोक्त पद्धतिसे पुरुष-
श्रेष्ठ पुरूरवाके साथ विहार करने लगी । वे भी देवताओं-
की विहारस्थली चैत्ररथ, नन्दनयन आदि उपवनोमिं उसके
साथ स्वच्छन्द विहार करने लगे ॥ २४ ॥ देवी उर्वशीके
शरीरसे कमलकेसरकी-सी सुगन्ध निकला करती थी।
उसके साथ राजा पुरूरवाने बहुत वर्षोतक आनन्द-विहार
किया। वे उसके मुखकी सुरभिसे अपनी सुध-बुध खो
बैठते धे ॥ २५॥ इधर जब इन्द्रने उर्वशीको नहीं देखा,
तब उन्होंने गन्धवॉको उसे लानेके लिये भेजा और
कहा--'उर्वशीके बिना मुझे यह स्वर्ग फीका जान पड़ता
है" ॥ २६ ॥ वे गन्धर्व आधी रातके समय घोर अन्धकारमें
वहाँ गये और उर्वशीके दोनों भेदको, जिन्हें उसने राजाके
पास धरोहर रक्ता था, चुराकर चलते बने ॥ २७॥
उर्वशीने जब गन्धर्वे द्वारा ले जाये जाते हुए अपने पुत्रके
समान प्यारे भेड़ोंकी “बें-बें' सुनी, तब वह कह उठी कि
“अरे, इस कायरको अपना स्वामी बनाकर मैं तो मारी
गयी । यह नपुंसक अपनेको बड़ा वीर मानता है। यह मेरे
भेड़ोंकी भी न बचा सका॥ २८॥ इसीपर विश्वास
है और रातमें ्ियोकी तरह डरकर सोया रहता
है' ॥ २९ ॥ परीक्षित् ! जैसे कोई हाथीको अंकुशसे बेघ
डाले, वैसे ही उर्वशीने अपने वचन-बाणोंसे राजाको वीध
दिया। राजा पुरूरवाकों बड़ा क्रोध आया और हाथमें
तलवार लेकर वस्नहीन अवस्थामे ही वे उस ओर दौड़
पड़े ॥ ३० ॥ गन्धर्बोने उनके झपटते ही भेड़ोंको तो वहीं
जोड़ दिया और स्वये बिजलीकी तरह चमकने लगे । जब
राजा पुरूरवा भेड़ोंको लेकर लौटे, तब उर्वशीने उस
प्रकाशमें उन्हें बस्नरहीन अवस्थामें देख लिया। (बस,वह
उसी समय उन्हें छोड़कर चली गयी) ॥ ३१॥
परीक्षित् ! राजा पुरूरवाने जन अपने 'शयनागारमें'
अपनी प्रियतमा उर्वशौको नहीं देखा, तो वे अनमने हो
गये। उनका चित्त उर्वशीमें ही बसा हुआ था। वे उसके
लिये शोकसे विद्लल हो गये -और उन्मत्तकी भाँति पृथ्वीमें
इधर-उधर भटकने लगे ॥ ३२॥ एक दिन कुरुक्षेत्रमें
सरस्वती नदीके तटपर उन्होंने उर्वशी और उसकी पाँच
प्रसत्रमुखौ सखिर्योको देखा और बड़ी मीठी वाणीस
कहा-- ॥ ३३॥ 'प्रिये तनिक ठहर जाओ । एक बार
मेरी बात मान लो । निष्ट! अब आज तो मुझे सुखी किये
विना मत जाओ। क्षणभर ठरो; आओ हम दोनों कुछ
बातें तो कर लें ॥ ३४ ॥ देवि ! अब इस शरीरपर तुम्हारा
कृपा-प्रसाद नहीं रहा, इसीसे तुमने इसे दूर फेंक दिया है ।
अतः मेरा यह सुन्दर शरीर अभी ढेर हुआ जाता है और
तुम्हारे देखते-देखते इसे भेड़िये और गीध खा
जायैंगे' ॥ ३५॥
उर्वशीने कहा--राजन् ! तुम पुरुष हो। इस प्रकार
मत मरो। देखो, सचमुच ये भेड़िये तुम्हें खा न जायें !
ख्त्रिवोंकी किसीके साथ मित्रता नहीं हुआ करती । सिर्योका
हृदय और भेदियोका हदय बिल्कुल एक-जैसा होता
दै ॥३६॥ ल्लियाँ निर्दय होती हैं। क्रूरता तो उनमें
स्वाभाविक ही रहती है। तनिक-सी बातमें चिद् जाती हैं
और अपने सुखके लिये बड़े-बड़े साहसके काम कर
बैठती हैं, थोड़े-से स्वार्थक लिये विश्वास दिलाकर अपने
पति और भाईतकको मार डालती हैं॥३७॥ इनके
हृदयमें सौहार्द तो है ही नहीं। भोले-भाले लोगोंको