अः १४]
* जवम स्कन्ध *
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चोदहवाँ अध्याय
चन्द्रवंशका वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं--परीक्षित् ! अब मैं तुम्हे
चन्रमाके पावन वंशका वर्णन सुनाता हूँ। इस व॑शमें
पुरूरवा आदि बड़े-बड़े पवित्रकीर्ति राजाओंका कीर्तन
किया जाता है॥१॥ सहसरं सिरवाले विश् पुरुष
नारायणके नाभि-सरोवस्के कमलसे ब्रह्माजीकी उत्पत्ति
हुई। ब्रह्माजीके पुत्र हुए अत्रि । वे अपने गुणोंक कारण
ब्रह्माजीके समान ही थे॥२॥ उन्ही अग्रिके नेत्रोसे
अमृतमय चद्धमाका जन्म हुआ । ब्रह्माजीने चन्द्रमाको
ब्रह्मण, ओषधि और नक्षत्रोका अधिपति बना
दिया ॥ ३ ॥ उन्होंने तीनों लोकॉपर विजय प्राप्त की और
राजसूय यज्ञ किया । इससे उनका घमंड बढ़ गया और
उन्होंने बलपूर्वक बृहस्पतिकी पत्नी ताराको हर
लिया ॥४॥ देवगुरु बृहस्पतिने अपनी पत्नीको लौटा
देनेके लिये उनसे बार-बार याचना की, परन्तु वे इतने
मतवाले हो गये थे कि उन्होंने किसी प्रकार उनकी पत्नीको
नहीं लौटाया। ऐसी परिस्थितिमें उसके लिये देवता और
दानवॉमें घोर संग्राम छिड़ गया ॥ ५॥ शुक्राचार्यजीने
बृहस्पतिजीके द्वेषसे असुरोकि साथ चन्द्रमाका पक्ष ले
लिया और महादेवजीने खेहवश समस्त भूतगणोके साथ
अपने विद्यागुरु अब्विराजीके पुत्र बृहस्पतिका पक्ष
लिया॥ ६॥ देवराज इन्द्रने भी समस्त देवताओकि साथ
अपने गुरु बृहस्पतिजीका ही पक्ष लिया। इस प्रकार
ताराके निमित्तसे देवता और असुरोंका संहार करनेवाला
घोर संग्राम हुआ॥ ७॥
तदनन्तर अङ्गिरा ऋषिने ब्रह्माजीके पास जाकर यह
युद्ध बंद करानेकी प्रार्थना की । इसपर ब्रह्माजीने चन्द्रमाको
बहुत डाँटा-फटकार और ताराको उसके पति
बृहस्पतिजीके हवाले कर दिया। जब बृहस्पतिजीकों यह
मालूम हुआ कि तारा तो गर्भवती है, तब उन्होंने
कहा-- ॥ ८ ॥ दष्टे ! मेरे क्षेत्रमें यह तो किसी दूसरेका
गर्भ है। इसे तू अभी त्याग दे, तुरन्त त्याग दे। डर
मत, मैं तुझे जलाऊँगा नहीं। क्योकि एक तो तू स्त्री है
और दूसरे मुझे भी सन्तानकी कामना है। देवी होनेके
कारण तू निर्दोष भी है ही' ॥९॥ अपने पतिकी बात
सुनकर तारा अत्यन्त लज्जित हुई। उसने सोनेके समान
चमकता हुआ एक बालक अपने गर्भसे अलग कर
दिया। उस बालकको देखकर बृहस्पति और चन्रमा दोनों
ही मोहित हो गये और चाहने लगे कि यह हमें मिल
जाय ॥ १० ॥ अब बे एक-दूसरेसे इस प्रकार जोर-जोरसे
झगड़ा करने लगे कि "यह तुम्हारा नहीं, मेरा है।' ऋषियों
और देवताओंने तारासे पूछ कि "यह किसका लड़का
है।' परन्तु ताराने लज्नावश कोई उत्तर न दिया॥ ११॥
बालकने अपनी माताकी झूठी लज्जासे क्रोधित होकर
कहा-- दुष्टे ! ! तू बतलाती क्यों नहीं ? तू अपना कुकर्म
मुझे शीघ्र-से-शीघ्र बतला दे'॥ १२॥ उसी समय
क्रह्याजीने तारको एकान्तम बुलाकर बहुत कुछ
समझा-बुझाकर पूछा। तब ताराने र्धरिसे कहा कि
“चन्द्रमाका ।। इसलिये चन्रमाने उस बालककों ले
लिया ॥ १३ ॥ परीक्षित् ! ब्रह्माजीनी उस बालकका नाम
रक्छाः "बुध ', क्योकि उसकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी। ऐसा
पुत्र प्राप्त करके चनद्रमाको बहुत आनन्द हुआ ॥ १४॥
परीक्षित् ! बुधके द्वारा इलाके गर्भसे पुरूरवाका
जन्म हुआ। इसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ। एक
दिन इन्द्रकी सभामें देवर्षि नारदजी पुरूरवाके रूप, गुण,
उदारता, शील-स्वभाव, धन-सम्पत्ति और पराक्रमका गान
कर रहे थे। उन्हें सुनकर उर्वशीके हृदयमें कामभावका
उदय हो आया और उससे पीड़ित होकर वह देवाङ्गना
पुरूरवाके पास चली आयी ॥ १५-१६॥ यद्यपि
उर्वशीको मित्रावरुणके शापसे ही मृत्युलोके आना पड़ा
था, फिर भी पुरुषशिरोमणि पुरूरवा मूर्तिमान् कामदेवके
समान सुन्दर हैं--यह सुनकर सुर-सुन्दरी उर्वशीने धैर्य
घारण किया और वह उनके पास चली आयी॥ १७॥
देवाङ्गना उर्वशीको देखकर राजा पुरूरवाके नेत्र हर्षसे
खिल उठे। उनके शरीरमें रोमाञ्च ह्ये आया । उन्होंने बड़ी
मीठी वाणीसे कहा-- ॥ १८ ॥
राजा पुरूरवाने कहा--सुन्दरी ! तुम्हारा स्वागत है।
बैठे, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ? तुम मेरे साथ
विहार करो और हम दोनोका यह विहार अनन्त कालतक