६६ ऋग्वेद संहिता पाग - २
सुरक्षा करने वाले दधिकरादेव के शरीर को एकत्र होकर अन्नादि के लिए सब लोग घेर लेते हैं ॥३ ॥
३४९८. उत स्य वाजी क्षिपणिं तुरण्यति ग्रीवायां बद्धो अपिकक्ष आसनि ।
क्रतुं दधिक्रा अनु संतवीत्वत्पथामङ्कस्यन्वापनीफणत् ॥४ ॥
वे दधिक्रादेव बलशालौ अश्र की तरह काँख तथा मुँह से वधे होने पर भी अपने रिपुओं की ओर तीव्र गति
से गणन करते है । वे अत्यधिक शक्तिशाली होकर यज्ञो का अनुगमन करके, कुटिल मार्गों को पार कर जति हैं ॥ ४
३४९९. हंसः शुचिषद्रसुरन्तरिक्षसद्धोता बेदिषदतिधिर्ुरोणसत्।
नृषद्ररसदूतसदव्योभसदन्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतम् ॥५ ॥
हंस (सूर्य) तेजोमय आकाश में एवं वसु (वायु) अन्तरिक्ष में अवस्थित हैं होता (अग्नि) वेदिका पर अतिथि
की तरह पूज्य होकर घे मे वास करते है । ऋत (सत्य या ब्रह्म) का वास मनुष्यो, वरणीय स्थानों, यज्ञस्थल एवं
अन्तरिक्ष में होता है । वे जल में, रश्मियों में, सत्य एवं पर्वतो में उत्पन्न हुए है ॥५ ॥
[ सूक्त - ४१ ]
[ऋषि - वामदेव गौतम । देवता - इन्द्रावरुण । छन्द - तरिष्टप् ॥
३५००. इन्द्रा को वां वरुणा सुम्नमाप स्तोमो हविष्माँ अमृतो न होता।
यो वां हदि क्रतुमाँ अस्मदुक्तः पस्पर्शदिन्द्रावरुणा नमस्वान् ॥९ ॥
हे इन्द्र तथा वरुणदेवो ! हमारे द्वारा विवेकपूर्वक तथा विनप्रताूरवक उच्चारित किया हुआ कौन-सा स्तोत्र
है, जो आपके हृदय को स्पर्श कर सके ? हे इनदर तथा वरुण देवो ! अविनाशी तथा आहूति से सम्पन्न अग्नि के
सदृश प्रदोप्त बह स्तोत्र आपके अन्तः स्थल में प्रवेश करे ॥१ ॥
३५०१. इन्द्रा ह यो वरुणा चक्र आपी देवौ मर्तः सख्याय प्रयस्वान् ।
स हन्ति वत्रा समिथेषु शत्रूनवोभिर्वा महद्धिः स प्र शृण्वे ॥२ ॥
जो व्यक्ति अ ति से सम्पन्न होकर इन्द्र तथा वरुण दोनों देवताओं की मित्रता को प्राप्त करने के लिए उनको
अपना बन्धु बनाता है, वह व्यक्ति अपने पापों को विनष्ट करता है, युद्ध में रिपुओं का विनाश करता है तथा महान्
सुरक्षा प्राप्त करने के कारण विख्यात होता है ॥२ ॥
३५०२, इन्द्रा ह रतनं वरुणा धेष्ठेत्था नृभ्यः शशमाने भ्यस्ता ।
दी सखाया सख्याय सोमैः सुतेभिः सुप्रयसा मादयैते ॥३ ॥
हे विख्यात इद्ध तथा वरुणदेवो ! आप दोनों देव, हम स्तोता मनुष्यो के निमित्त मनोहर ऐश्वर्य प्रदान करने
वाले हों । यदि आप दोनों परस्पर मित्र हैं और मित्रता के लिए अभिषुत सोमरस तथा उत्तम अन्नो से हर्षित हैं, तो
हमें ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हों ॥३ ॥
३५०३. इन्द्रा युवं वरुणा दिद्युमस्मिन्नोजिष्ठमुग्रा नि वधिष्टं वज्रम् ।
यो नो दुरेवो वृकतिर्दभीतिस्तस्मिन्मिमाथामभिभूत्योजः ॥४ ॥
हे पराक्रमौ इन्द्र तथा वरुणदेवो ! जो हमारे अकल्याण करने वाते अदाता तथा हिंसक हैं; आप दोनों अपने
दिनाशकारी तेज को उन पर प्रकट करें । आप दोनों इस शत्रु के ऊपर अपने तेजस्वी तथा अत्यधिक ओजस्वी
वच्र से प्रहार करें ॥४ ॥