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१०९ सु ३ ३

१६. पितरं हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिशादसम्‌। धियं घृताचीं साधन्ता ॥ ७ ॥

धृत के समान प्राणप्रद वृष्टि-सम्पल कराने वाले मित्र और वरुण देवों का हम आवाहन करते हँ । मित्र

हमें बलशाली बनायें तथा वरुणदेव हमारे हिंसक शत्रुओं का नाश करें ॥७ ॥

१७. ऋतेन मित्रावरुणावृतावृधावृतस्पृशा। क्रतुं बृहन्तमाशाथे ॥ ८ ॥

सत्य को फलितार्थ करने वाले सत्ययज्ञ के पुष्टिकारक देव मित्रावरुणो ! आप दोनों हमारे पुण्वदायौ

कार्यो (प्रवर्तमान सोमयाग) को सत्य से परिपूर्ण करें ॥८ ॥

१८. कवी नो मित्रावरुणा तुविजाता उरुक्षया । दक्षं दधाते अपसम्‌ ॥ ९ ॥

अनेक कर्मों को सप्पन कराने वाले विवेकशील तवा अनेक स्थलों मे निवास करने वाले मित्रावरुण

हमारी क्षमताओं और कार्यो को पुष्ट बनाते हैं ॥९ ॥

[ सूक्त - ३ |

[ऋषि-मधुन्छन्दा वैश्वामित्र । देवता-१-३ अश्विनी कुमार, ४-६ इन्द्र, ७-९ विश्वेदेवा, १०.६२ सरस्वती ।

छन्द्‌गावत्रो ।]

१९. अश्विना यज्वरीरिषो द्रवत्पाणी शुभस्पती । पुरुभुजा चनस्यतम्‌ ॥ १ ॥

हे विशालवाहो ! शुभ कर्मपालक द्रुतगति से कार्य सम्य करने वाले अश्विनीकुमारो ! हमारे द्वारा समर्पित

हविष्यानों से आप भली प्रकार सन्तुष्ट हों ॥१ ॥

२०. अश्विना पुरुदंससा नरा शवीरया धिया। धिष्ण्या वनतं गिरः ॥ २ ॥

असंख्य कर्मो को सप्पादित करने वाले,धैर्य धारण करने वाले, बुद्धिमान्‌ है अरिवनीकुषारो ! आप अपनी

उत्तम बुद्धि से हमारी वाणियों (प्रार्थाओं) को स्वीकार करे ॥२ ॥

२१. दल्ला युवाकवः सुता नासत्या वृक्तवर्हिषः। आ यातं रुद्रवर्तनी ॥ ३ ॥

रोगो को विनष्ट करने वाले, सदा सत्य बोलने वाले रुद्रदेव के समान (शत्रु संहारक) प्रवृत्ति वाले, दर्शनीय

है अश्विनौकुमारों आप यहाँ आयें और बिछी हुई कुशाओं पर विराजमान होकर प्रस्तुत संस्कारित सोमरस

का पान करें ॥३ ॥

२२. इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायवः। अण्वीभिस्तना पूतासः ॥ ४ ॥

है अद्भुत दीप्तिमान्‌ इन्द्रदेव ! अँगुलियों द्वारा खवित्‌, श्रेष्ठ पवित्रतायुक्त यह सोमरस आपके निषित्त

है । आप आये ओर सोमरस का पान करें ॥४ ॥

२३. इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूतः सुतावतः । उप ब्रह्माणि वाघतः ॥ ५ ॥

हे इद्धरदेव ! श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा जानने योग्य आप, सोमरस प्रस्तुत करते हुये ऋत्विजों के द्वारा बुलाये गये

हैं । उनकी स्तुति के आधार पर आप यज्ञशाला में पधारें ॥५ ॥

२४. इन्द्रा याहि तूतुजान उप ब्रह्माणि हरिवः। सुते दधिष्व नश्चनः ॥ ६ ॥

हे अश्वयुक्त इन्रदेव ! आप स्तवनो के श्रवणार्थं एवं इस यज्ञ में हमारे द्वारा प्रदत्त हवियों का सेवन

करने के लिये यज्ञशाला में शीघ्र हौ पधारे ॥६ ॥

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