पाताछखण्ड] « चैदाख -माहात्यके प्रसङ्घमे राजा महीरथकी कथा और यम-ब्राह्मण -संचाद्का उपसंहार +
॥7 47
कष्टदायक बताया गया है । व्यसनमे पड़े हुए राजाकी
अधोगति होतो है ओर जो व्यसनसे टूर रहता है, वह
स्वर्गल्मेकमें जाता है।* व्यसन और दुःख विशेषतः
कामसे ही उत्पन्न होते हैं; अतः कामका परित्याग कयो ।
पापॉमें फैस जानेपर यैभव एवं भोग स्थिर नहीं रहते; ये
शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। चलते, रुकते, जागते और
सोते समय भी जिसका चित्त विचारमें संलग्न नहीं रहता
वह जीते-जी भी मरे हुएके हो तुल्य है। विद्वान् पुरुष
विषय-चिन्ता छोड़कर समतापूर्ण, स्थिर एवं व्यावहारिक
युक्तिसे परमार्थका साधन करते हैं। जीवका चित्त
बालककी भाँति चपर होता है; अतः उससे बलपूर्वक
काम लेना चाहिये। राजन् ! धर्मके तत्त्वद्शी वृद्ध
पुरुषोंकी बुद्धिका सहारा ले पराबुद्धिके द्वारा अपने
कुपथगामी चित्तको वशामें करना चाहिये । ल्लैकिक धर्म,
पित्र, भाई-बन्धु, हाथ-पैरोंका चलाना, देशान्तरे जाना,
शरीरसे फ्लैश उठाना तथा तीर्थके लिये यत्न करना आदि
कोई भी परमपदको प्राप्तिमें सहायता नहीं कर सकते;
केबल परमात्पाम पन लगाकर उनका नाम-जप करनेसे
हो उस पदकी प्राप्ति होती है।
इसलिये राजन् ! विद्रान् पुरुषकों उचित है कि वह
विषयोमें प्रवृत्त हुए चित्तको रोकनेके स्यि यत्रे करे ।
यलसे बह अवश्य ही वहामें हो जाता है । यदि मनुष्य
मोहरे पड़ जाय--स्वयं विचार करनेमें असमर्थ हो जाय
तो उसे विद्धान् सुद्दोंके पास जाकर प्रश्न करना चाहिये।
ते पूछनेपर यथोचित कर्तव्यका उपदेज्ञ देते हैं।
कल्याणकौ इच्छा रखनेवालेको हर एक उपायसे काम
और क्रोधका निग्रह करना चाहिये; क्योकि वे दोनों
कल्याणका विघात करनेके लिये उद्यत रहते हैं । राजन् !
काम बड़ा बल्थ्वान् है; वह दारीरके भीतर रहनेवास्त
महान् शत्रु है। श्रेयकी अभिल्म्रपा रखनेवाले पुरुषको
उसके अधीन नहीं होना चाहिये। अतः विधिपूर्वक
पालन किया हुआ धर्म ही सबसे श्रेष्ठ है। इसलिये तुम
धैर्य धारण करके धर्मका ही आचरण करो । यह श्वास
६०१
बड़ा चञ्चल है, जीवन उसीके अधीन है । ऐसी स्थितिमें
भी कौन मनुष्य धर्मके आचरणमे। विलम्ब करेगा ।
राजन् ! जो युद्धायस्थाको प्राप्त हो चुका है, उसका चित्त
भी इन निषिद्ध विषर्योकी ओरसे नहीं हटता; हाय ! यह
कितने शोककी यात है । पृथ्वीनाथ ! इस कामके मोहमे
पड़कर तुम्हारी सारी उप्र व्यर्थ बीत. गयी, अब भी तो
अपने हित-साधनर्मे लगो। राजन् ! तुम्हारे लिये
सर्वोत्तम हितकी बात कहता हूँ; क्योंकि मैं तुम्हारा
पुरोहित और तुम्हारे भके-बुरे कर्मोंका भागी हूँ।
पुनीश्चरोंने ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी, गुरुपल्लीगमन आदि
महापातकं बताये हैं; उनमेंसे मनुष्योद्धारा सन, वाणो और
दारीरसे भी किये हुए जो पाप हैं, उन्हें बैज्ञाख मास नष्ट
कर देता है। जैसे सूर्य अन्धकारका नाश करता है, उसी
प्रकार वैशाख मांस पापरूपी महान् अन्धकारको सर्वथा
नष्ट कर डालता है । इसलिये तुम विषिपूर्वक यैदाख-
ब्रतका पालन करो । राजन् ! मनुष्य बैशाख मासकी
विधिके अनुष्ठानद्वारा होनेवाले पुण्यके प्रभावसे
जन्पभरके किये हुए घोर पापोंका परित्याग करके
परमधापक प्राप्त होता है। इसलिये महाराज ! तुम भी
इस यैशाख मासमे भ्रातः स्नान करके विधिपूर्वक भगवान्
मधुसुदनकी पूजा करो । जिस प्रकार कूटने-छाँटनेकी
क्रियासे चाबलकी भूसी छूट जाती है, माँजनेसे ताधेकी
कालिख मिट जाती है, उसी प्रकार शुभ कर्मका अनुष्ठान
करनेसे पुरुषके अन्तःकरणका मल धुल जाता है ।
राजाने कहा--सौम्य स्वभाववाले गुरुदेव !
आपने मुझे वह अभृत पिलाया, जिसका आविर्भाव
समुद्रसे नहीं हुआ है । आपका वचन संसाररूपी रोगका
निवारण तथा दुर्व्यसनोंसे मुक्त करनेवाला द्रन्यभिन्न
ओषध है । आपने कृपा करके मुझे आज इस औषधका
पान कराया है। विप्रवर ! सत्पुरुषोंका समागम
मनुष्योंको हर्ष प्रदान करनेवाली, उनके पापको दूर
भगानेवाली तथा जरा-मृत्युका अपहरण करनेवाली
संजीवनी चूटी है । इस पृथ्वीपर जो-जो मनोरथ दुर्लम
# ख्यस्नस्व च मृत्योश्च ॒स्यसनं कष्टमुच्यते | ख्यसन्यधोऽ्रो छजति स्वर्यात्यस्यसनो नृपः ॥ (९५॥। ३१)