मं० ५ सू० ५५ ७९
४१२९. आभूषेण्यं वो मरुतो महित्वनं दिदृ्षेण्यं सूर्यस्येव चक्षणम् ।
उतो अस्माँ अमृतत्वे दधातन शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ॥४॥
हे मरुतो ! आपको विशिष्ट महता स्तो आदि द्वारा विभूषित होती है । वह सूर्य के रूप सदृश दर्शनीय है ।
आप हमे अमरता प्रदान करें । जल वृष्टि आदि कल्याणकारी कार्यों के निमित्त गपनशोल आपके रथादि साधन
भी आपके अनुगामी होते हैं ॥४ ॥
४१३०. उदीरयथा मरुतः समुद्रतो यूयं वृष्टं वर्षयथा पुरीषिणः ।
न वो दला उप दस्यन्ति धेनवः शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ॥५ ॥
हे जल सम्मत मतो ! आप अन्तरिक्ष से समुद्र के जल को प्रेरित करते हैं और जल वर्षण प्रारम्भ करते हैं ।
हे शत्र संहारक मरुतो ! आपके निमित्त स्तृतियाँ कभी नष्ट नहीं होती । जल वृष्टि आदि कल्याणकारौ कार्यो के
निमित्त गमनशील, आपके रथादि भी आपके अनुगामी होते हैं ॥५ ॥
४१३१. यदश्रान्धूर्ष पृषतीरयुग्ध्वं हिरण्ययाग्रत्यत्काँ अपुरध्वम् ।
विश्वा इत्स्पृधो परुतो व्यस्यथ शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ॥६ ॥
रे मरुद्गणो ! जब आप विन्दुदार (चिह्नित) अश्वों को अपने रथ से योजित करते हैं और स्वर्णमय कवच
को धारण करते हैं, तब स्पर्धा रखने वाते सभी शत्रुओं को क्षत-विश्षत कर देते हैं जल वृष्टि आदि कल्याणकारी
कार्यो के निमित गमनशौल आपके रथादि भी आपके अनुगामौ होते हैं ॥६ ॥
४१३२. न पर्वता न नद्यो वरन्त वो यत्राचिध्वं मरुतो गच्छेद् तत् ।
उत द्यावापृथिवी याथना परि शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ।७ ॥
हे परुतो ! पर्वत और नदियाँ आपके मार्ग को अवरुद्ध न करें । आप्र जहाँ जाने की इच्छा करें, वहाँ जाएँ ।
द्यावा-पृथिवो में सर्वत्र गमन करें । जल वृष्टि आदि कल्याणकारी कार्यों के निधित्त गमनशौल आपके रथादि साधन
आपके अनुगामी होते हैं ॥७ ॥
४१३३. यत्पूर्व्य मरुतो यच्च नूतनं यदुद्यते वसवो यच्च शस्यते ।
विश्वस्य तस्य भवथा नवेदसः शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ॥८ ॥
है सर्व निवासक पररुतो ! जो यज्ञादि अनुष्ठान पहले स्यादित किये गये हैं. जो नूतन यज्ञ हो रहे हैं, उनके
जो मच्रगान और स्तोत्रपाठ होते हैं, उन्हे आप जानने वाले हों । जल वृष्ट आदि कल्याणकारी कार्यों के निमित्त
गमनशौल रथादि आपके अनुगामौ होते है ॥८ ॥
४१३४. पृक्त नो मरुतो मा वधिष्टनास्मभ्यं शर्म बहुलं वि यन्तन ।
अधि स्तोत्रस्य सख्यस्य गातन शुभं यातापनु रथा अवृत्सत ॥९ ॥
हे मरतो ! हमें सुखी बनायें, अपने क्रोध से नष्ट न करें, सुख प्रदान करे । हमारे मित्र भाव से युक्त स्तोत्रो से
अवगत हों । जलवृ आदि कल्याणकारौ कार्यों के निमित्त गमनशौल रथादि साधन आपके अनुगामौ होते हैं ॥९ ॥
४१३५. यूयमस्मान्नयत वस्यो अच्छा निरंहतिभ्यो मरुतो गृणानाः ।
जुषध्वं नो हव्यदातिं यजत्रा वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥१०॥
हे स्तुत्य मरुद् गणो ! आप हमें पापों से विमुक्त करें और ऐश्वर्ययुक्त स्थान को ओर ते चलें । हे यजनीय
मरुतो ! हमारे द्वारा प्रदत हव्यादि पदार्थ को ग्रहण करें, जिससे हम विविध ऐश्वयों के स्वापी हो ॥१० ॥