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संक्षिम्त नारदपुराण

सेवनका फल नहीं मिलता । मेरा यह शरीर आपके | राजाओंपर शासन करनेवाले हो। तुमने मुझे कृतार्थ

अधीन है। मेरे धर्मपर भी आपका अधिकार है और

आप ही मेरे सबसे बड़े देवता हैं।' अनेकों

राजाओंसे घिरे हुए अपने पुत्र धर्माड्दकी यह बात

सुनकर महाराज रुक्माङ्गदने पुनः उसे छातीसे लगा

लिया और इस प्रकार कहा-' बेरा! तुमने ठीक

कहा है; क्‍योंकि तुम धर्मके ज्ञाता हो। पुत्रके लिये

पितासे बढ़कर दूसरा कोई देवता नहीं है। बेटा!

तुमने अनेक राजाओंसे सुरक्षित सात द्वीपवाली

पृथ्वीको जीतकर जो उसकी भलीभाँति रक्षा की है,

इससे तुमने मुझे अपने मस्तकपर विटा लिया।

लोकमें यही सबसे बड़ा सुख है, यही अक्षय

स्वर्गलोक है कि पृथ्वीपर पुत्र अपने पितासे अधिक

यशस्वी हो। तुम सदगुणपर चलनेवाले तथा समस्त

कर दिया, ठीक उसी तरह जैसे शुभ एकादशी

तिथिने मुझे कृतार्थ किया है।'

पिताकी यह बात सुनकर राजपुत्र धर्माद्भदने

पूछा--' पिताजी ! सारी सम्पत्ति मुझे सौंपकर आप

कहाँ चले गये थे? ये कान्तिमयी देवी किस

स्थानपर प्राप्त हुई हैं महीपाल ! मालूम होता है,

ये साक्षात्‌ गिरिराजनन्दिनी उमा हैं अथवा क्षीरसागर-

कन्या लक्ष्मी हैं? अहो! ब्रह्माजी रूप-रचनामे

कितने कुशल हैं, जिन्होंने ऐसी देवीका निर्माण

किया है। राजराजेश्वर! ये स्वर्णगौरीदेवी आपके

घरकी शोभा बढ़ाने योग्य हैं। यदि इनकी-जैसी

माता मुझे प्राप्त हो जायं तो मुझसे बढ़कर

पुण्यात्मा दूसरा कौन होगा।'

#-+“ क्या न्‍>्ज

धरमाङ्गदद्वारा मोहिनीका सत्कार तथा अपनी माताको मोहिनीकी सेवाके लिये

एक पतिव्रता नारीका उपाख्यान सुनाना

वसिष्ठजी कहते हैं-- धर्माड्भदकी बात सुनकर

रुक्माङ्गदको बड़ी प्रसन्नता हई । वे बोले-' बेटा!

सचमुच ही ये तुम्हारी माता हैं। ये ब्रह्माजीकी

पुत्री है । इन्होंने बाल्यावस्थासे ही मुझे प्राप्त

करनेका निश्चय लेकर देवगिरिपर कठोर तपस्या

प्रारम्भ की थी। आजसे पंद्रह दिन पूर्व मैं घोड़ेपर

सवार हो अनेक धातुओंसे सुशोभित गिरिश्रेष्ठ

मन्दराचलपर गया था। उसीके शिखरपर यह

बाला भगवान्‌ महेश्वरको प्रसन्न करनेके लिये

संगीत सुना रही थी। वहाँ मैंने इस सुन्दरीका

दर्शन किया और इसने कुछ प्रार्थनाके साथ मुझे

पतिरूपमें वरण किया। मैंने भी इन्हें दाहिना हाथ

१.पितुर्वचनकर्तार:

देकर इनकी मुँहमाँगी वस्तु देनैक प्रतिज्ञा की

और मन्दराचलके शिखरपर ही विशाल नेत्रोंवाली

ब्रह्मपुत्रीकों अपनी पत्नी बनाया। फिर पृथ्वौपर

उतरकर घोड़ेपर चढ़ा और अनेक पर्वत, देश,

सरोवर एवं नदिर्योको देखता हुआ तीन दिने

वेगपूर्वक चलकर तुम्हारे समीप आया हूँ।'

पिताका यह कथन सुनकर शत्रुदमन धरमाङ्गंदने

घोड़ेपर चढ़ी हुई माताके उदेश्यसे धरतीपर मस्तक

रखकर प्रणाम करते हुए कहा--'देवि ! आप मेरी

माँ हैं, प्रसन्न होइये। मैं आपका पुत्र और दास हूँ।

माता! अनेक राजाओंके साथ मैं आपको प्रणाम

करता हूँ।' राजन्‌! मोहिनी राजपुत्र धर्माड्नदको

पुत्रा धन्या जगत्वये। कि ततः पातकं राजन्‌ यो न कुर्यात्ितुर्वचः ॥

ब्रजेत्छरातुं त्रिमार्गाम्‌ । न तत्तीर्थफलं भुङ्क्ते यो न कुर्यात्‌ पितुर्वचः ॥

(ना० उत्तर० १५। ३४-३५)

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