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* अर्थयस्व हषीकेदौ यदीच्छसि परं पदम् «
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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माने गये हैं, वे सब यहाँ साधु पुरुषोंके सङ्खसे प्राप्त हो
जाते हैं। जो पापोंका अपहरण करनेवाली सत्सङ्गकी
गल्जामें स्नान कर चुका है, उसे दान, तीर्थसेवन, तपस्या
तथा यज्ञ करनेकी क्या आवश्यकता है।* प्रभो!
आजके पहले मेंरे मनमें जो-जो भाव उठते थे, वे सब
केवल काम-सुख्के प्रति स््रेभ उत्पन्न करनेवाले थे;
परन्तु आज आपके दर्शनसे तथा वचन सुननेसे उनमें
विपरीत भाव आ गया । मूर्ख मनुष्य एक जन्मके सुखके
लिये हजारो जन्मोका सुख नष्ट करता है और विद्वान्
पुरुष एक जन्मसे हजारों जन्म बना लेते हैं। हाय !
हाय ! कितने खेदकी बात है कि मुझ मूर्खने अपने
मनको सदा कामजनित रसके आस्थादन-सुखमें ही
फैसाये रखनेके कारण कभी कुछ भी आत्म-कल्याणका
कार्य नहीं किया। अहो ! मेरे मनका कैसा मोह है,
जिससे मैंने स्तियोंके फेरमें पड़कर अपने आत्माकी घोर
विपत्तिमें डाल दिया, जिसका भविष्य अत्यन्त दुःखमय
है तथा जिससे पार पाना बहुत कठिन है। भगवन् !
आपने स्वतः संतुष्ट होकर अपनी वाणीसे आज मुझे मेरी
जैज्ञाख-स्त्रानके उत्तम ब्रतका पालन कराऊँगा।
तदनन्तर पुरोहित कश्यपने राजा महीरथसे वैशाख
मासे स्नान, दान और पूजन कराया । शासे वैदाख-
स्नानकी जैसी विधि उन्होंने देखी थी, उसका पूरा-पूरा
पालन कराया । राजा महीरथने धी गुरुकी प्रेरणासे उस
समय विधिपूर्वकं सब नियमॉका पालन किया तथा
माधव मासका जो-जो विधान उन्होंने बताया, वह सब
आदरपूर्वकं सुना। उन नृपश्रेष्ठने प्रातःकाल खान करके
भक्ति-भावके साथ पाद्य और अर्ध्यं आदि देकर
श्रीहरिका पूजन किया तथा नैवेद्य भोग लगाया ।
यमराज कहते है -- व्रह्मन् ! तत्पश्चात् राजाके
ऊपर कालकी दृष्टि पडी । अधिक यात्रामे। रतिका सेवन
करनेसे उन क्षयका रोग हो गया था, जिससे उनका
शारीर अत्यन्त दुर्बल हो गया; अन्तततोगत्वा उनकी मृत्यु
स्थितिका बोध करा दिया । अब उपदेशा देकर मेरा उद्धार | ; 0
कीजिये। पूर्वजन्म मैंने कोई पुण्य किया था, जिससे
आपने मुझे बोध कराया है। विश्षेषत: आपके चरणोंकी
चूलिसे आज मैं पवित्र हो गया। वक्ताओंमें श्रेष्ठ आव
आप मुझे यैद्ाख मासकी विधि बताइये ।
कदश्यपजी बोले--राजन् ! बुद्धिमान् पुरुषकों
चाहिये कि यह बिना पूछे अथवा अन्यायपूर्वक पूछनेपर
किसीको उपदेशा न दे । स्त्रेकमें जानते हुए भी जडयत्--
अनजानकी भाँति आचरण करे।+7 परन्तु चिद्रानौ,
शिष्यौ, पुत्रों तथा श्रद्धालु पुरुषौको उनके हितकौ यात
कृपापूर्वक बिना पूछे भी बतानी चाहिये । ‡ राजन् ! इस
समय तुम्हारा मन धर्म स्थित हुआ है, अतः तुम्हें
# हर्षप्रदो नृणौ पापहानिकृच्छैवनौषधम् | जगमूत्युरगे विप्र सद्धिः स्ह समसागमः ॥
यानि खानि दुरापानि वाच्छितानि महोतल्ले । प्राप्यन्ते तानि तान्ये स्वशरुनापीह संगमात् ॥
खः स्नातः पापहरया साधुसंगमगज्या | कि तस्य दानैः कि तीर्थैः कि तपोभिः किमध्वौः ॥
(९६ । ३--५)
+ वापृष्टः कस्यचिद् श्रुयात्र चाव्यायेर पृच्छतः । जायत्रपि हि मेधावी जडवल्त्मेक अगचरेत् ॥ (९६ । ६७)
‡ क्िदुषासथ दिष्याणो पुत्राणं च कृपाया | अपृष्टमपि यक्तव्यं॑श्रेयः श्रद्धाया हितम् ॥ (९६ | १८)