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कान्ति असित (श्याम) है। वे समूचे ब्रह्माण्डमें | अर्थात्‌ "हं, य॑, लं, व॑, रं'--इस प्रकार मन्त्रका

व्याप्त हैं। उनका नाम चन्द्र है और वे नागमय

आभूषणसे विभूषित हैं। उनकी नासिकाका अग्रभाग

नीले रंगका है और उनके पंख बड़े विशाल हैं।'

मन्त्रज्ञ विद्वान्‌ अपने-आपका भी गरुडके रूपमें

ही चिन्तन करे। इस तरह गरुडस्वरूप मन्त्रप्रयोक्ता

पुरुषके वाक्यसे मन्त्र विषपर अपना प्रभाव

डालता है। गरुडके हाथकी मुट्ठी रोगीके हाथमें

स्थित हो तो वह उसके अद्भुष्ठमें स्थित विषका

विनाश कर देती है। मन््र् पुरुष अपने गरुडस्वरूप

हाथको ऊपर उठाकंर उसकी पाँचों अँगुलियोंके

चालनमात्रसे विषसे उत्पन्न होनेवाले मदपर

दृष्टि रखते हुए उस विषका स्तम्भन आदि कर

सकता है॥ १३--१७ \॥

आकाशसे लेकर भू-बीजपर्यन्त जो पाँच बीज

हैं, उन्हें 'पञ्माक्षर मन्त्रराज" कहा गया है।

(उसका स्वरूप इस प्रकार है--हं, य॑, रे, वं, लं ।)

अत्यन्त विषका स्तम्भन करना हो तो इस मन्त्रके

उच्चारणमात्रसे मन्त्रज्ञ पुरुष विषको रोक देता है।

यह “व्यत्यस्तभूषण' बीजमन्त्र है। अर्थात्‌ इन

बीजोंको उलट-फेरकर बोलना इस मन्त्रके लिये

भूषणरूप है। इसको अच्छी तरह साध लिया

जाय और इसके आदिमे 'संप्लवं प्लावय

प्लावय '--यह वाक्य जोड़ दिया जाय तो मन्त्र-

प्रयोक्ता पुरुष इसके प्रयोगसे विषका संहार कर

सकता है॥ १८-१९ ३॥

इस मन्त्रके भलीभाँति जपसे अभिमन्त्रित

जलके द्वारा अभिषेक करनेमात्रसे यह मन्त्र अपने

प्रभावद्वारा उस रोगीसे डंडा उठबा सकता है,

अथवा मन्त्रजपपूर्वक' की गयी शहद्लुभेयादिकी

ध्वनिको सुननेमात्रसे यह प्रयोग रोगीके विषको

अवश्य ही दग्ध कर देता है। यदि भू-बीज "लं!

तथा तेजोबीज "रं" को उलटकर रखा जाय,

स्वरूप कर दिया जाय तो उसका प्रयोग भी

उपर्युक्त फलका साधक होता है। अर्थात्‌ उससे

भी विषका दहन हो जाता है। भू-बीज और

वायु-बीजका व्यत्यय करनेसे जो मन्त्र बनता है

वह (हंलंरं वं यं) विषका संक्रामक होता है,

अर्थात्‌ उसका अन्यत्र संक्रमण करा देता है।

मन््र-प्रयोक्ता पुरुष रोगीके समीप बैठा हो या

अपने घरमे स्थित हो, यदि गरुडके स्वरूपका

चिन्तन तथा अपने-आपमें भी गरुडकी भावना

करके "रं वं,'-इन दो ही बीजोंका उच्चारण

(जप) करे तो इस कर्मको सफल बना सकता

है। गरुड और वरुणके मन्दिरमे स्थित होकर

उक्त मन्त्रका जप करनेसे मन्त्रञ्च पुरुष विषका

नाश कर देता है। "स्वधा" और श्रीके बीजोंसे

युक्त करके यदि इस मन््रको बोला जाय तो

इसे “जानुदण्डिमन्त्र' कहते है । इसके जपपूर्वक

स्रान और जलपान करनेसे साधक सब प्रकारके

विष, ज्वर, रोग और अपमृत्युपर विजय पा

लेता है ॥ २०--२४॥

१-पक्षि पश्चि महापक्षि महापक्षि वि वि स्वाहा ।

२-पश्षि पक्षि महापक्षि महापक्षि क्षि शचि स्वाहा ॥

-ये दो पक्षिराज गरुडके मन्त्र है । इनके

द्वारा अभिमन्त्रण करने, अर्थात्‌ इनके जपपूर्वक

रोगीको झाड़नेसे ये दोनों मन्त्र विषके नाशक

होते हैं ॥ २५-२६॥

"पक्षिराजाय विद्हे पक्षिदेवाय धीमहि तनो

गरुडः प्रचोदयात्‌।'-- यह गरुड-गायत्रीमन्त्र

है ॥ २७॥

उपर्युक्त दोनों पक्षिराज-मन्त्रोंको 'रं' बीजसे

आवृत्त करके उनके पार्श्रधागमें भी "रं" बीज

जोड़ दे। तदनन्तर दन्त, श्री, दण्डि. काल

और लाङ्गलौसे उन्हें युक्त कर दे और आदिमे

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