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पातालखण्ड ]

+ दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा स्खकों युगल-मन्त्रकी प्राप्ति +

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दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके हारा रुद्रको युगल-मन्त्रकी प्राप्ति

शिवजी कहते है-- नारद ! अब मैं दीक्षाकी

यथार्थ विधिका वर्णन करता हूँ, ध्यान देकर सुनो । इस

विधिका अनुष्ठान न क्स्के केवल श्रवण मात्रसे भी

मनुष्य भव-बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। विद्वान्‌ पुरुष इस

बातकों समझ ले कि साधारण कीटसे लेकर ब्रह्माजीतक

यह सम्पूर्ण जगत्‌ नश्वर है; इसपे आध्यात्मिक,

आधिदैविक तथा आधिभौतिक--इन तीन प्रकारके

दुःखोंका ही अनुभव होता है । यहाँके जितने सुख हैं, ये

सभी अनित्य हैः अतः उन्हे भी दुःखोंकी ही श्रेणीमें रखे ।

फिर विरक्त होकर उनसे अलग हो जाय और संसार-

बन्धनसे छूटनेके लिये उपायोका विचार करे; साथ ही

सर्वोत्तम सुखकी प्रातिके साधनक भी सोचे तथा पूर्ण

शान्त बना रहे। नाना प्रकारके कर्मोंका ठीक-ठीक

सम्पादन बहुत कठिन है, ऐसा समझकर परम बुद्धिमान्‌

पुरुषको चाहिये कि वह अत्यन्त चिन्तित होकर

श्रीगुरुदेवकी झरणमें जाय। जो शान्त हों, जिनमें

मात्सर्यका नितान्त अभाव हो, जो श्रीकृष्णके अनन्य

भक्त हौ, जिनके मने श्रीकृष्ण-प्राप्तिके सिवा दूसरी कोई

कामना न हो, जो भगवत्कृपाके सिवा दूसरे किसी

साधनका भरोसा न करते हों, जिनमें क्रोध और लोभ

लेशामात्र भी न हों, जो श्रीकृष्णरसके तत्त्वज्ञ और

श्रीकृष्णमन्त्रकी जानकारी रखनेवास्पेंमें श्रेष्ठ हों, जिन्होंने

श्रीकृष्णमन्त्रका ही आश्रय लिया हो, जो सदा मन्त्रके

प्रति श्रद्धा-भक्ति रखते हों, सर्वदा पवित्र रहते हों,

प्रतिदिन सद्धर्मका उपदेश देते और लोर्गोको सदाचारे

प्रवृत्त करते हों, ऐसे कृपालु एवे विरक्त महात्मा ही गुरु

कहत्वते हैं। शिष्य भी ऐसा होना चाहिये, जिसमें प्रायः

उपर्युक्त गुण मौजूद हों। इसके सिवा उसे गुरुचरणोंकी

सेवाके र्त्ये इच्छुक, गुरूका नितान्त भक्त तथा मुमुक्षु

होना चाहिये। जिसमें ऐसी योग्यता हो, वही दिष्य

करत्प्रता है। प्रेमपूर्ण हृदयसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी

साक्षात्‌ सेवाका जो अवसर मिलता है, उसीको वेद-

वेदाङ्गका ज्ञान रखनेवाले विद्वानोंने मोक्ष कहा है।*

किष्यको चाहिये कि बह गुरुके चरणोंकी शरणमें

जाकर उनसे अपना वृत्तान्त निवेदन करे तथा गुरुके

उचित है कि ये अत्यत्त प्रसन्न होकर बारम्बार समझाते

हुए शिष्यके सन्देहोका निराकरण करें, तत्पश्चात्‌ उसे

मन्त्रका उपदेश दें। चन्दन या मिट्टी लेकर शिष्यकी

जायीं ओर दाहिनी भुजाओंके मूल-भागमें क्रमशः शङ्खं

और चक्रका चिह्न अद्धित करें। फिर रुल्मट आदियें

विधिपूर्वक ऊर्ध्वपुण्ड्‌ छगायें। तदनन्तर पहले बताये

हुए दोनों मन्त्रौका दिष्यके दाहिने कानमें उपदेश करें

तथा क्रमझः उन मन्त्रोंका आर्थ भी उसे अच्छी तरह

समझा दें । फिर यत्रपूर्वक उसका कोई नूतन नाम रखें,

जिसके अन्तमे 'दास' दाब्द जुड़ा हो। इसके बाद विद्वान्‌

कष्य प्रेमपूर्वक वैष्णवोको भोजन कराये तथा अत्यन्त

भक्तिके साथ वस ओर आभूषण आदिके द्वारा श्रीगुरूका

पूजन करे । इतना ही नहीं, अपने शरीरकों भी गुरूकी

सेवा समर्पित कर दे ।

नारद ! अब मैं तुषं इारणागत पुरुषोंके धर्म बताना

चाहता हूँ, जिनका आश्रय लेकर कलियुगके मनुष्य

भगयानके धाममे पहुँच जायैंगे। ऊपर बताये अनुसार

गुरुसे मन्त्रका उपदेश पाकर गुरु-भक्त झिष्य प्रतिदिन

गुरूकी सेवामें संलग्न हो अपने ऊपर उनकी पूर्ण कपा

समझे। तदनन्तर सत्पुरुषोंके, उनमें भी विशेषतः

दारणागतोंके धर्म सौखे और वैष्णर्वोको अपना इष्टदेव

+ श्रान्तो विमत्सर: कृष्णे भक्तोउनन्यप्रयोजन: । अनन्यस्वधनः श्रीमान्‌ क्रोधल्प्रेभविवर्जित: ॥

वरः । कृष्णमन्त्राश्रयों नित्ये मन्त्र भक्त: सदा गुचः ॥

श्रीकृष्णरखतत्वज्ञः कृष्णमन्त्रकिटौ

सद्ध्मझासको नित्य सदाचारनियोजकः: । सम्प्रदायी

प्रायः

कुपापूर्णे विरागी गुरुरुच्यते ॥

निवात्तभक्तश्च मुमुक्षुः दिष्य उच्यते ॥

एवमादिगुण झुझूपुर्गुल्पादयो: । गुते

स्त्साक्षात्सेयनं लस्य ग्रेम्णा भगयतों भवेतू॥स मोक्ष: प्रोच्यते प्राजैवेंदवेदाज़लेदिभि:॥ (८२ । ६-- १०)

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