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# अर्ख॑यस्व हषीके यदीच्छसि परं पदम्‌ +

[ संक्षिप्त पद्मपुराण

तदनन्तर श्रीशधाकी सखिर्योका ध्यान करे । उनकी

अवस्था और गुण श्रीराधाजीके हो समान है । वे चैवर

और पेखी आदि केकर अपनी स्वाभिनीकी सेवामै छगी

हुई है।

नारदजी ! श्रीकृष्णप्रिया राधा अपनी चैतन्य आदि

अन्तरङ्गं विभूतियोंसे इस अपञ्चका गोपन - संरक्षण

करती हैं; इसलिये उन्हे 'गोपी' कहते है । वे श्रीकृष्णकी

आशाध्नामें तन्मय होनेके कारण 'राधिका' कदत््रती दै ।

श्रीकृष्णमयी होनेसे ही वे परादेवता है । पूर्णतः लक्ष्मी-

स्वरूपा है । श्रीकृष्णके आहृदका मूर्तिमान्‌ स्वरूप

होनेके कारण मनीयीजन उन्हें 'हादिनी शक्ति' कहते है ।

श्रीराधा साक्षात्‌ महालक्ष्मी हैं और भगवान्‌ श्रीकृष्ण

साक्षात्‌ नारायण हैं। मुनिश्रेष्ठ ! इनमें थोड़ा-सा भी भेद

नहीं है। श्रीराघा दुर्गा है तो श्रीकृष्ण रुदर । वे सावित्री हैं

तो ये साक्षात्‌ ब्रह्मा हैं। अधिक क्या कहा जाय, उन

दोनोंके बिना किसी भी वस्तुकी सत्ता नहीं है।

जड-चेतनमय सारा संसार श्रीराधा-कृष्णका ही स्वरूप

है। इस प्रकार सनको उन्हीं दोनोंकी त्रिभूति समझो। मैं

नाम ले-लेकर गिनाने रग तो सौ करोड़ वर्षोंमिं भी उस

विभूतिका वर्णन नहीं कर सकता ।* तीनों लोकमि पृथ्वी

सबसे श्रेष्ठ मानी गयी है। उसमें भी जम्बूद्वीप सब

द्रीपसे श्रेष्ठ है। जम्बूद्वीपर्में भी भारतवर्ष और भारतवर्षमें

भी मथुरापुरी श्रेष्ठ है। मथुरामें भी वृन्दावन, वृन्दावनमें

भो गोपियोंका समुदाय, उस सपुदायमें भी श्रोराघाकी

सख्वियोंका वर्ग तथा उसमें भी स्वयं श्रीराधिका सर्वश्रेष्ठ

है। श्रीकृष्णके अत्यधिक निकट होनेके कारण

श्रीराधाका महत्त्व सबकी अपेक्षा अधिक है। पृथ्वी

आदिकी उत्तरोत्तर श्ेष्ठताका इसके सिवा दूसरा कोई

कारण नहीं है । वही ये श्रीराधिका हैं, जो “गोपी' कही

गयी है; इनकी सख्तियाँ ही "गोपीजन' कहलाती है । इन

सखियेोकि समुदायके दो ही प्रियतम हैं, दो ही उनके

प्राणोंके स्वामी हैं--श्रीशधा और श्रीकृष्ण । उन दोनेकि

चरण ही इस जगते शरण देनेवाले हैं। मैं अत्यन्त

दुःखी जीव हूँ, अतः उन्हींका आश्रय लेता हूँ---उन्हींकी

इारणमे पड़ा हूँ। शरणमें जानेवाला मैं जो कुछ भी हूँ

तथा मेरी कहल्मनेवाली जो कोई भी वस्तु है, वह सब

श्रीराधा और श्रीकृष्णको ही समर्पित है--सब कुछ

उन्हींके लिये है, उन्हींका भोग्य वस्तु है। मैं और मेरा

कुछ भो नहीं है। विप्रवर ! इस प्रकार मैंने थोड़ेमें

*गोपीजनवल्लभत्तरणान्‌ शरणौ प्रपद्दे' इस मन्त्रके

अर्थका वर्णन किया है। युगल्त्र्थ, न्यास, प्रपत्ति,

कारणागति तथा आत्मसमर्पण--ये पाँच पर्याय बतल्त्ये

गये हैं। साधककों रात-दिन आलस्य छोड़कर यहाँ

बताये हुए विषयका चिन्तन करना चाहिये ।

न किचन | चिदचिच्लक्षण सव॑ राधाकृष्णमयं जगत्‌ ॥

तथेरिव विभति विद्धि नास्द।न राक्यते मया वबक्तुं. यर्षकोटिफातैरपि ॥

(€ १९ । ५३-- ५८)

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