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६१८ * संक्षिप्त ब्रह्मवैवर्तपुराण +

है, वही शिष्यका भी है। तर्पण, पिण्डदान, पालन | तुम्हारी प्रतिष्ठा और यश लक्ष्मीजीके समान होंगे।

और परितोषण--इन सभी कर्मोंके लिये पुत्र और | सौभाग्य और पतिविषयक प्रेम श्रीराधिकाके

शिष्यमें कोई भेद नहीं है। जैसे पुत्र पिताके समान होगा। स्वामीके प्रति गौरव, मान, प्रीति

मरनेपर उसके लिये अग्निदाता होता है, अवश्य | तथा प्रधानताका भाव भी तुममें श्रीराधाके ही

उसी तरह शिष्य गुरुके लिये अग्निप्रदाता कहा | सदृश होगा। रोहिणीके समान तुमे पतिकी

गया है। यह बात कण्वशाखामें ब्रह्माजीने कही | अपेक्षा-बुद्धि होगी। तुम भारतीके समान

है। पिता, माता, गुरु, पत्नी, छोटा बालक, अनाथ | पूजनीया तथा सावित्रीके तुल्य सदा शुद्धा एवं

एवं कुदुम्बीजन--ये पुरुषमात्रसे नित्य पोषण |उपमारहित होओगी।

पानेके योग्य हैं, ऐसा ब्रह्माजीका कथन है *।| बृहस्पतिजी ऐसा कह ही रहे थे कि नहुषके

जो इनका पोषण नहीं करता उसके शरीरके भस्म | दूतने वहाँ आकर शचीसे नन्दनवनमें चलनेके

होनेतक उसे सूतक (अशौच)-का भागी होना | लिये कहा। यह सुनते ही बृहस्पतिजीका सारा

पड़ता है। वह जीते-जी देवयज्ञ तथा पितृयज्ञे | शरीर क्रोधसे कोपने लगा ओर उनकी आँखें

कर्म करनेका अधिकारी नहीं रहता है-एेसा | लाल हो गयीं। वे उस दूतसे बोले।

महे श्वरका कथन है । जो माता, पिता ओर गुर्के | गुरुने कटहा--दूत! तू जाकर नहुषसे कह

प्रति मानव-बुद्धि रखता है, उसको सर्वत्र अयश | दे कि ' महाराज! यदि तुम शचौका उपभोग करना

प्राप्त होता है ओर उसे पग-पगपर विघ्रका हौ ¦ चाहते हो तो एक ऐसी सवारीपर चढ़कर रातपें

सामना करना पड़ता है । जो सम्पत्तिसे मतवाला | आना, जिसका आजसे पहले किसीने उपयोग

होकर अपने गुरुका अपमान करता है, उसका | न किया हो। सप्तर्षियोंक कंधोंपर अपनी सुन्दर

शीघ्र ही सर्वनाश हौ जाता है; यह सुनिश्चित शिविका (पालकी) रख उत्तम वेशभूषासे सज-

बात है । अपनी सभामें मुझे देखकर इन्द्र आसनसे | धजकर उसीपर आरूढ हो तुम्हें यहाँतक यात्रा

नहीं उठे थे, उसीका फल इस समय भोग रहे करनी चाहिये।'

है। गुरुके अपमानका शीघ्र ही जो कटु फल बृहस्पतिजीकी बात सुनकर दूतने नहुषके

प्राप्त हुआ, उसे तुम अशी आँखों देख लो। | पास जा उनका संदेश कह सुनाया । सुनकर नहुष

अब मैं इन्द्रको शापसे छुड़ाऊँगा और निश्चय ही | हँस पड़ा ओर अपने सेवकसे बोला-' जाओ,

तुम्हारी रक्षा करूँगा। जो शासन और संरक्षण | जाओ, जल्दी जाओ और सपतर्षियोको यहाँ बुला

दोनों हौ कर सकता हो, वही गुरु कहलाता | लाओ। उन सबके साथ मिलकर कोई उपाय

है। जो हृदयसे शुद्ध है अर्थात्‌ जिसके हदयमें | करूँगा। तुम अभी जाओ।'

कलुषिते भावे नहीं पैदा हुआ दै, उस नारीका राजाका आदेश पाकर दूत सप्तर्षियोंके समीप

सतीत्व नष्ट नहीं होता। परंतु जिसके मनमें गया और नहुषने जो कुछ कहा था, वह सब

विकल्प है, उसका धर्म नष्ट हो जाता है। | उसने उन सबसे कह सुनाया । दूतकौ बात सुनकर

पतिव्रते! तुम्हारा दुर्गाजीके समान प्रभाव बदेगा। सप्तर्षि प्रसत्नतापूर्वक नहुषके पास गये। उन

*पिता माता गुरुभार्यां शिशुश्चानाथवान्धवाः । एते पुंसं तित्यपोष्या इत्याह कमलोद्धवः॥

(६०। ५)

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