सुष्टिखण्ड ]
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पुलस्त्यजी कहते है-- राजन् ! नारदजीके मुँहसे
ये सारी बातें सुनकर मेनाके स्वामी गिरिराज हिमालयने
अपना नया जन्म हुआ माना । वे अत्यन्त हर्षम भरकर
बोले--'प्रभो ! आपने घोर और दुस्तर नरकसे मेरा
उद्धार कर दिया । मुने ! आप-जैसे संतोंका दर्शन निश्चय
ही अमोघ फल देनेवात्प्र होता है । इसलिये इस
कार्यमे-- मेरी कन्याके विवाहके सम्बन्धे आप समय-
समयपर योग्य आदेश देते रहें [जिससे यह कार्य
निर्विघ्रतापूर्वक सम्पन्न हो सके] ।'
गिरिगजके ऐसा कहनेपर नारदजी हर्षमें भरकर
बोले--“शैलराज ! सारा कार्य सिद्ध ही समझो। ऐसा
करनेसे ही देवताओंका भी कार्य होगा और इसीमें
तुम्हारा भी महान् लाभ है।' यों कहकर नारदजी
देवलोकमें जाकर इनद्रसे मिले ओर बोले--'देवराज !
आपने मुझे जो कार्य सौंपा था, उसे तो मैंने कर ही दिया;
किन्तु अब कामदेवके बाणोंसे सिद्ध होने योग्य कार्य
उपस्थित हुआ है।' कार्यदर्शी नारद मुनिके इस प्रकार
कहनेपर देवराज इन्द्रने आमकी मजजरीको ही अख्नके
रूपमे प्रयोग करनेवाले कामदेवका स्मरण किया। उसे
सामने प्रकट हुआ देख इन्द्रने कहा-- 'रतिवल्लभ !
तुम्हें बहुत उपदेश देनेकी क्या आवश्यकता है; तुम तो
सङ्कल्पसे ही उत्पन्न हुए हो, इसलिये सम्पूर्ण प्राणियोंके
मनकी बात जानते हो । स्वर्गवासियोंका प्रिय कार्य करो ।
मनोभव ! गिरिराजकुमारी उमाके साथ भगवान् वाङ्करका
शीघ्र सयोग कराओ । इस मधुमास चैत्रको भी साथ ठेते
जाओ तथा अपनी पत्नी रतिसे भी सहायता लो ।'
कामदेव बोला-देव ! यह सामग्री मुनियो और
दानवेकि लिये तो बड़ी भयंकर है, किन्तु इससे भगवान्
शङ्करो वहम करना कठिन है ।
इन्द्रे कला-- "रतिकान्त ! तुम्हारी शक्तिको मैं
जानता हूँ; तुम्हारे द्वारा इस कार्यके सिद्ध होनेम तनिक
भी सन्देहे नहीं है ।'
इन्द्रके ऐसा कहनेपर कामदेव अपने सखा
मधुमासको लेकर रतिके साथ तुरत ही हिमालयके
दिखरपर गया । वहाँ पहुँचकर उसने कार्यके उपायका
* पार्वतीका जन्म, मद॒न-दहन, पार्वतीका तप तथा उनका झिजजीके साथ विवाह «
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विचार करते हुए सोचा कि “महात्मा पुरुष निष्कम्य--
अविचल होते है । उनके मनको वदाम करना अत्यन्त
दुष्कर कार्यं है । उसे पहले ही क्षुब्ध करके उसके ऊपर
विजय पायी जाती है। पहले मनका संशोधन कर लेनेपर
ही प्रायः सिद्धि प्राप्त होती है। मैं महादेवजीके
अन्तःकरणमें प्रवेश करके इन्द्रिय-समुदायको व्याप्त कर
रमणीय साधनोंके द्वारा अपना कार्य सिद्ध ककूँगा।' यह
सोचकर कामदेव भगवान् भूतनाथके आश्रमपर गया।
कह आश्रम पृथ्वीका सारभूत स्थान जान पड़ता था।
वहाँकी वेदी देवदारुके वृक्षसे सुशोभित हो रही थी।
कामदेवने, जिसका अन्तकाल क्रमशः समीप आता जा
रहा था, र्घरि-र्घीरि आगे बढ़कर देखा--भगवान् शङ्कर
ध्यान लगाये बैठे हैं। उनके अधखुले नेत्र अर्ध-
विकसित कमलछदलके समान शोभा पा रहे हैं। उनकी
दृष्टि सीधी एवं नासिकाके अग्रभागपर लगी हुई है।
शरीरपर उत्तरीयके रूपमे अत्यन्त रमणीय व्याघ्रचर्म
कटक रहा है। कानोंमें धारण किये हुए सपेकि फनॉसे
निकली हुई फुफकारकी आँचसे उनका मुख पिङ्गल
वर्णका हो रहा है। हवासे हिलती हुई लम्बी-लम्बी
जया उनके कपोल-प्ान्तका चुम्बन कर रही हैं।
वासुकिं नागका यज्ञोपवीत घारण करनेसे उनकी नाभिके
मूल भागमें वासुकिका मुख और वष सटे हुए दिखायी
देते हैं। वे अज्ञलि बांधे ब्रह्मके चिन्तनमें स्थिर हो रहे
हैं और सपेकि आभूषण धारण किये हुए हैं।
तदनन्तर वृक्षकी शाखासे भ्रमरकी भाँति झंकार
करते हुए कामदेवने भगवान् शङ्करके कानमें होकर
हदयमे प्रवेश किया। कामका आधारभूत वह मधुर
इकार सुनकर दाङ्करजौके मनमें रमणकी इच्छा जाग्रत्
हुई और उन्होंने अपनी प्राणवल्लभा दक्षकुमारी सतीका
स्मरण किया । तब स्मरण-पथमें आयी हुई सती उनकी
निर्मल समाधि-भावनाको धीरे-धीरे लुप्त करके स्वयं ही
लक्ष्य-स्थानमें आ गयीं और उन्हें प्रत्यक्ष रूपमें
उपस्थित-सी जान पड़ीं। फिर तो भगवान् शिव उनकी
सुधमें तन्मय हो गये। इस आकस्मिक विघ्नने उनके
अन्तःकरणको आवृत्त कर लिया। देवताओंके अधीश्वर