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अध्याय ४९ ]

अधाह प्रकटक्रोध: सुरारिभ॑त्सयन्‌ सुतम्‌।

प्रह्लादकी उत्पत्ति और उनकी हरि-भक्तिसे हिरण्यकशिपुकी उद्ठिग्रता

१४९

पदक यों कहनेपर देवश्तु हिरण्यकशिपु अपने क्रोधको

केनायं बालको नीतो दशामेतां सुमध्यमाम्‌॥ ४७ | रोक न सका, उसने रोषको प्रकट करके पुत्रको फटकारते

धिग्‌ धिग्घाहेति दुष्पुत्र किं मे कृतमघं महत्‌।

याहि याहि दुराचार पापिष्ठ पुरुषाधम।

उक्त्वेति परितो वीक्ष्य पुनराह शिशोर्गुरुम्‌॥ ४८

बद्ध्वा चानीयतां दैत्यैः करे: कूरपराक्रमैः।

इति श्रुत्वा ततो दैत्यास्तमानीय न्यवेदयन्‌।

श्लरीमानूचे खलं भूपं देवान्तक परीक्षताम्‌॥ ४९

लीलयैव जितं देव त्रैलोक्यं निखिलं त्वया ।

असकृन्न हि रोषेण किं क्र द्धस्याल्पके मयि॥ ५०

इति सामवचः श्रुत्वा द्विजोक्तं प्राह दैत्यराट्‌ ।

विष्णुस्तवं मम सुतं पाप बालमपीपठः॥ ५९१

उक्त्वेति तनयं प्राह राजा साप्नामलं सुतम्‌।

ममात्मजस्य किं जाड्पं तव चैतदद्विजै: कृतम्‌॥ ५२

विष्णुपश्ैर्धुवं धर्तीमंढ नित्यं परित्यज।

त्वज द्विजग्रसङ्गं हि द्विजसद्गो ह्यशोभनः॥ ५३

अस्मत्कुलोचितं तेजो यैद्विजैस्तु तिरोहितम्‌।

यस्य यत्संगतिः पुंसो पणिवत्स्यात्स तद्गुणः ॥ ५४

स्वकुलद्धरयै ततो धीमान्‌ स्वयुथानेव संश्रयेत्‌।

मत्मुतस्योचितं त्यक्त्वा विष्णुपक्षीयनाशानम्‌॥। ५५

स्वयमेव भजन्‌ विष्णं मन्द किं त्वं न लज्जसे।

विश्वनाथस्य मे सूनुर्भूत्वान्यं नाधमिच्छसि ॥ ५६

शृणु वत्स जगत्ततं कश्षिन्नास्ति निजः प्रभुः ।

यः शूरः स श्रियं भुङ्क्ते स प्रभुः स महेश्वरः ॥ ५७

हुए कहा--' हाय! हाय! किसने इस बालकको अत्यन्त

मध्यम कोटिकी अवस्थाको पहुँचा दिया? रे दुष्ट पुत्र! तुझे

पि्वार है, धिक्कार है! तूने क्योँ मेर महान्‌ अपराध किया?

ओ दुराचारी नीच पुरुप! ओरे पापिष्ठ! तू यहाँसे चला जा,

चला जा।' यों फहकर उसने अपने चार्यो ओर निहास्कर

फिर कहा--नृज्षंस पराक्रमो क्रूर दैत्य आयं और इसके

गुरुको बोधकर यहाँ ले आयें'॥४७-४८,॥

यह सुन दैत्योने प्रह्नादके गुरुकों वहाँ लाकर उपस्थित

कर दिया। वुद्धिमान्‌ गुरुने उस दुष्ट दैत्यराजसे विनयपूर्वक

क्रहा-देवान्तक ! थोड़ा विचार तो कौजिये। आपने

समस्त त्रिभुवनको अनायास ही अनेकों भार पराजित

किया है, खेल- खेले ही सबको जीता है, रोपसे कभी

काम नहीं लिया। फिर मुझ-जैसे तुच्छ प्राणीपर क्रोध

करनेसे क्या लाभ होगा ?॥ ४९-५०॥

ब्राह्मणक इस शान्त वचनको सुनकर दैत्यराज बोला-

“अरे पापी! तूने सेरे बालक पुत्रको विष्णुका स्तोत्र पढ़ा

दिया है।” गुरुसे यों कहकर राजा हिरण्यकशिपुने अपने

निर्दोष पुत्रके प्रति सान्त्वनापूर्वक कहा--'' बेटा! तू मेरा

आत्मज है, तुझमें यह जड-ब्रुद्धि कैसे आ सकतो है?

यह तो इन ब्राह्मणोंको ही करतूत है। मूर्ख बालक |

आजसे तू सदा विष्णुके क्षमे रहनेवाले धूर्त ब्राह्मणोंका

साध छोड़ दे, ब्राह्मणमात्रका सङ्ग त्याग दे; ब्राह्मणोंकी

संगति अच्छी नहों होती; क्योंकि इन ब्राह्मणोंने ही तेरे

उस तेजको छिपा दिया, जो हमारे कुलके लिये सर्व॑धा

उचित था। जिस पुरुषकों जिसको संगति मिल जातौ

है, उसमें उसीके गुण आने लगते हैं--ठीक उसी तरह,

जैसे मणि कीचड़में पड़ो हो तो उसमें उसके दुर्गन्धि

आदि दोष आ जाते हैं। अत्तः बुद्धिमान्‌ पुरुषकों उचित

है कि यह अपने कुलकों समृद्धेके लिये आत्मीय

जनोंका हो आश्रय ले। बुद्धिहोन बालक! मेरे पुत्रके

लिये तो उचित कर्तव्य यह है कि वह विष्णुके पक्षमें

रहनेवाले लोगोंका नाश करे; परंतु तू इस उचित कार्यको

ह्यागकर इसके विपरीत स्वयं ही विष्णुका भजन कर

रहा है! बता तो सहों, क्या यों करते हुए तुझे लज्जा नहीं

आतो ? अरे! मुझ सम्पूर्ण जगत्‌के सम्राटका पुत्र होकर

तू दुसरेकों अपना स्वामौ बनाना चाहता है? बेटा! मैं

तुझे संसारका तत्व बताता हूँ, सुन; यहाँ कोई भौ अपना

स्वामौ नहों है। जो शूरबोर है, वहो लक्ष्मोका उपभोग

करता है तथा यही प्रभु है, वही मै श्र है ॥ ५१--५७॥

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