२६२
श्रीनरसिंहपुराण { अध्याय ६२
धर्मशास्नमिदं यस्तु हारीतमुखनिस्सृतम्।
श्रुत्वा च कुरुते धर्म स चाति परमां गतिम्॥ १६
मुखजस्य तु यत्कर्म कर्म यद्राहुजस्य तु।
ऊरुजस्य तु यत्कर्म ॑पादजस्य तथा नृप ॥ १७
स्वं स्वं कर्म प्रकुर्वाणा विप्राद्या यान्ति सद्गतिम्।
अन्यथा वर्तमानो हि सद्यः पतति चात्यधः ॥ १८
चस्य येऽभिहिता धर्माः स तु तैस्तैः प्रतिष्ठित: ।
तस्मात्स्वधर्म कुर्वीत नित्यपेवमनापदि ॥ १९
चतुर्वर्णाश्च राजेन्द्र चत्वारश्चापि चाश्रपाः।
स्वधर्मं येऽनुतिष्ठन्ति ते यान्ति परपां गतिप्॥ २०
स्वधर्मेण यथा नृणां नरसिंहः प्रतुष्यति ।
वर्णधर्पानुसारेण नरसिंहं तथार्चयेत् ॥ २९
उत्यन्नवैराग्ययलेन योगाद्
ध्यायेत् परं ब्रह्म सदा क्रियायान्।
सत्यात्मकं चित्मुरवरूपमाद्यं
जो भी हारीत मुनिके मुखसे निर्गत इस धर्मशास्त्रका
श्रवण करके इसके अनुसार आचरण करता है यह
परमगतिको प्रास होता है। नरेश्वर ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, यस्य
और शुद्रके जो-जो कर्म यताये गये हैं, उन-उत अपने-
अपने वर्णोचित कर्मोंका फलन करनेवाले ब्राह्मण आदि
सद्रतिको प्राप्त होते हैं; इसके विपरीत आचरण करनेवाला
पुरुष तत्काल नौचे गिर जाता है। जिसके लिये जो धर्म
बताये गये हैं, बह पुरुष उन्हीं धर्मोंसे प्रतिष्ठित होता है।
इसलिये आपत्तिकालके अतिरिक्त खदा हो अपने धर्मका
पालन करना चाहिये। राजेन्दर! चार हो वर्ण और चार
ही आश्रम हैं। जो लोग अपने वर्ण एबं आश्रमके उचित
धर्मका पूर्णतया पालन करते हैं, थे परम गतिको प्रास
होते हैं। भगवान् नरसिंह जिस प्रकार स्वधर्मका आचरण
करनेसे मनुष्यपर प्रसन्न होते हैं, वैसे दूसरे प्रकारसे वहीं;
इसलिये वर्णधर्मके अनुसार भगवान् नरसिंहका पूजन
करना चाहिये। जो पुरुष स्वकर्म तत्पर रहकर उत्पन्न
हुए वैरम्यके बलस योगाभ्यासपूर्वक सदा सच्ििदानन्दस्वरूप्
अनादि गब्रह्मका ध्यान करता है, वह देह त्यागकर साक्षात्
विहाय देहं पदमेति विष्णो:॥ २२ | श्रीविष्णुपदकों प्राप्त होता है॥ १५--२२॥
उति ऑकसिहपुराने फोफाध्यायो गक शिते; धत्य: € ६? ९
इस पज्र कोरि पराणनं "वोध्य ' रमक इकसउठकोँ अध्ययर पतः इुआ॥ 4१ #
न क =
'बासटठ्बो अध्याय
श्रीविष्णुपूजनके यैदिक मन्त्र और स्थान
अ्रैज्ञर्कल्ड़ेय उक्त
वर्णानापाश्रमाणां च कथितं लक्षणं तव।
भूयः कथय राजेन्द्र शुश्रूषा तव का नृप॥ १
सहस्शओोक उक
स्नात्वा वेश्मनि देयेशपर्चयेदच्युतं त्विति।
त्वयोक्तं मम चिप्रदद्र तत्कथं पूजनं भवेत्॥ २
यैर्मन्त्रैरर्ज्यते विष्णुर्येषु स्थानेषु वै पुने।
तानि स्थानानि तान्पन््ास्त्वमाचक्ष्व महामुने ॥ ३
श्रीमाकण्डेयजी कहते हैं-- राजन्! मैंने तुम्हें वणो
और आश्र्ोक्षा स्वरूप वताया। राजेन्द्र! अब कहो,
तुम्हारे मनमें कया सुननेकौ इच्छा है ॥ १॥
सहस्रानीक बोले--विप्रेन््! आपने बताया कि
पूजन करना चाहिये। अत: यह पूजने किस प्रकार होना
चाहिये ? महाभुने! जिन मन्त्रोंद्वारा और जिन आधारोंमें
भगवान् चिष्णुकौ पूजा होती है, यै आधार और ये मन्त्र
आप मुझे ब्ताइये॥२ ३॥