* गणपतिखण्ड * ३०७
{7 4... 4:
जाती है ओर वे ही उसका फल प्रदान करते | कहीं दूसरेकी इच्छासे होता है ? मैं इन दिगम्बरको
हैं। जो जिस रूपसे उनका ध्यान करता है, उसे | आगे करके तीनों लोकोंमें भ्रमण करूँगा। उस
उसी रूपसे उसका फल देते है । अतः शिवे! समय ये बालक-बालिकाओंके समुदायके लिये
तुम शिवको दक्षिणारूपमे देकर अपना ब्रत पूर्ण | हंसीके कारण होंगे।
करो। फिर समुचित मूल्य देकर अपने स्वामीको| मुने! उस देवसभामें यों कहकर ब्रह्मके
वापस कर लेना। शुभे! जैसे गौएँ विष्णुकी | पत्र तेजस्वी सनत्कुमारने शंकरजीको अपने
देहस्वरूपा हैं, उसी प्रकार शिव भी विष्णुके शरीर संनिकट बैठा लिया। इस प्रकार कुमारद्वारा
हैं; अतः तुम ब्राह्मणको गोमूल्य प्रदान करके | शंकरजीको ग्रहण किये जाते देखकर पार्वतीके
अपने स्वामीको लौटा लेना। यह बात श्रुतिसम्मत | कण्ठ, ओट ओर तालु सूख गये। वे शरीर छोड़
है; क्योकि जैसे स्वामी यज्ञपत्नीका दान करनेके | देनेके लिये उद्यत हो गयीं । उस समय वे मन-
लिये सदैव समर्थ है, उसी तरह यज्ञपत्री भी | ही-मन सोचने लगीं कि यह कैसी कठिन बात
स्वामीको दे डालनेकी अधिकारिणी है। हुई कि न तो अभीष्टदेवका दर्शन मिला और
सभाके बीच यों कहकर नारायण वहीं|न ब्रतका फल ही प्राप्त हुआ। इसी बीच
अन्तर्धान हो गये। इसे सुनकर सभी सभासद् | पार्वतीसहित देवताओनि आकाशम एक परमोत्कृषट
हर्षविभोर हो गये तथा हर्ष-गदृद हुई पार्वती | तेजसमूह देखा। उसकी प्रभा करोड़ों सूर्योकी
दक्षिणा देनेको उद्यत हुईं। तदनन्तर शिवान | प्रभासे उत्कृष्ट थी, वह दसों दिशाओंको प्रज्वलित
हवनकी पूर्णाहुति करके शिवको दक्षिणारूपमें दे | कर रहा था ओर सम्पूर्ण देवताओंसे युक्त कैलास
दिया और उधर सनत्कुमारजीने उस देवसभामें | पर्वतकौ तथा सबको आच्छादित कर रहा था।
'स्वस्ति' ऐसा कहकर दक्षिणा ग्रहण कर ली । | उसकी मण्डलाकृति बड़ी विस्तृत धी । भगवान्के
उस समय भयभीत होनेके कारण दुर्गाका कण्ठ, | उस तेजको देखकर देवता लोग क्रमशः उनकी
ओठ ओर तालु सूख गया था, वे हाथ जोड़कर | स्तुति करने लगे।
दुःखी हदयसे ब्राह्यणसे बोलीं । विष्णुने कहा- भगवन्! यह जो महाविरार्
पार्वतीजीने कहा-- विप्रवर ! 'गौका मूल्य | है, जिसके रोमछिद्रोमें सभी ब्रह्माण्ड वर्तमान हैं,
मेरे पतिके बराबर है'--ऐसा वेदम कहा गया | वह जब आपका सोलहवां अंश है, तब हम
है, अतः मैं आपको एक लाख गौठ प्रदान |लोगोंकी क्या गणना है?
करूँगी। आप मेरे स्वामीको लौटा दीजिये । पतिके | ब्रह्माने कहा - परमेश्वर ! जो वेदोकि उपयुक्त
मिल जानेपर मैं ब्राह्मणको अनेक प्रकारकी | दृश्य है, उसका प्रत्यक्ष दर्शन करने, स्तवन करने
दक्षिणाएँ बाँटूँगी। (अभी तो मैं आत्महीन हूँ, | तथा वर्णन करनेमें मैं समर्थ हूँ; परंतु जो वेदसे
ऐसी दशामें) भला, आत्मासे रहित शरीर कौन- | परे है, उसकी मैं क्या स्तुति करूँ?
सा कर्म करनेमें समर्थ हो सकता है? श्रीमहादेवजीने कहा-- भगवन्! जो सबके
सनत्कुमारजी बोले--देवि! मैं ब्राह्मण हू । | लिये अनिर्वचनीय, स्वेच्छामय, व्यापक और
मुझे एक लाख गौओंसे क्या प्रयोजन है और | ज्ञानसे परे हैं, उन आपका मैं ज्ञानका अधिष्ठातृदेवता
इस अमूल्य र्रको गौओंके बदले देनेसे भी क्या | होकर किस प्रकार स्तवन करूँ?
लाभ होगा? त्रिलोकीमें सभी लोग स्वयं अषने- धर्मने कहा--जो अदृश्य होते हुए भी
अपने कर्मके कर्ता हैं। क्या कर्ताका अभीष्ट कर्म अवतारके समय सभी प्राणियोंके लिये दृश्य हो