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ववं इलादेवि! लोकसंवर्द्धिनि! कामरूपिणि!

देहि मे धनं स्वाहा।--इन मन्त्रोंकों पत्ते या

भोजपत्रपर लिखकर धान्यकी राशिमें रख दे तो

धान्यकी वृद्धि होती है। तीनों पूर्वा, विशाखा,

धनिष्ठा ओर शतभिषा-इन छः नक्षत्रोंमें बखारसे

धान्य निकालना चाहिये। ( देवादि-प्रतिष्ठा-

मुहूर्त-- ) सूर्यके उत्तरायणमें रहनेपर देवता,

बाग, तड़ाग, वापी आदिकी प्रतिष्ठा करनी चाहिये।

भगवान्‌के शयन, पाश्व-परिवर्तन और

जागरणका उत्सव-- ) मिथुन-राशिमें सूर्यके

रहनेपर अमावास्याके बाद जब द्वादशी तिथि

होती है, उसीमें सदैव भगवान्‌ चक्रपाणिके

शयनका उत्सव करना चाहिये। सिंह तथा तुला-

राशिमें सूर्यके रहनेपर अमावास्याके बाद जो दो

द्वादशी तिथियाँ होती हैं, उनमें क्रमसे भगवान्‌का

पार्श्व-परिवर्तन तथा प्रबोधन (जागरण) होता है।

कन्या-राशिका सूर्य होनेपर अमावास्याके बाद

जो अष्टमी तिथि होती है, उसमें दुर्गाजी जागती

हैं। (त्रिपुष्करयोग-- ) जिन नक्षत्रोके तीन

चरण दूसरी राशिमें प्रविष्ट हों (जैसे कृत्तिका,

पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा, उत्तराषाढा ओर

पूर्वभाद्रपदा --इन नक्षत्रे, जब भद्रा द्वितीया,

सप्तमी और द्वादशी तिथियाँ हों एवं रवि, शनि

तथा मङ्गलवार हो तो त्रिपुष्करयोग होता है । ( चन््र-

बल-- ) प्रत्येक व्यावहारिक कार्ये चन्द्र तथा

तारकी शुद्धि देखनी चाहिये। जन्मराशिमें तथा

जन्मराशिसे तृतीय, षष्ठ, सप्तम, दशम, एकादश

स्थानोंपर स्थित चन्द्रमा शुभ होते हैं। शुक्ल पक्षे

द्वितीय, पञ्चम, नवम चन्द्रमा भी शुभ होता है।

( तारा-शुद्धि-- ) मित्र, अतिमित्र, साधक,

सम्पत्‌ और क्षेम आदि ताराएँ शुभ हैं। “जन्म-

तारा' से मृत्यु होती है, 'विपत्ति-तारा'से धनका

विनाश होता है, 'प्रत्यरि” और 'मृत्युतारा' में

निधन होता है। (अत: इन ताराओंमें कोई नया

काम या यात्रा नहीं करनी चाहिये।) (क्षीण

और पूर्ण चन्द्र- ) कृष्ण पक्षकी अष्टमीसे

शुक्ल पक्षकी अष्टमी तिथितक चन्द्रमा क्षीण

रहता है; इसके बाद वह पूर्ण माना जाता है।

( महाज्येष्टी-- ) वृष तथा मिथुन राशिका

सूर्य हो, गुरु मृगशिरा अथवा ज्येष्ठा नक्षत्रमें हो

और गुरुवारको पूर्णिमा तिथि हो तो वह पूर्णिमा

“महाज्येष्ठी' कही जाती है। ज्येष्ठामें गुरु तथा

चन्द्रमा हों, रोहिणीमें सूर्य हो एवं ज्येष्ट मासकी

पूर्णिमा हो तो वह पूर्णिमा 'महाज्येष्ठी ' कहलाती

है। स्वाती नक्षत्रके आनेसे पूर्व ही यन्त्रपर

इनद्रदेवका पूजन करके उनका ध्वजारोपण करना

चाहिये; श्रवण अथवा अश्िनीमें या सप्ताहके

अन्ते उसका विसर्जन करना चाहिये॥ ५२--६४॥

( ग्रहणे दानका महत्त्व-- ) सूर्यके राहुद्वारा

ग्रस्त होनेपर अर्थात्‌ सूर्यग्रहण लगनेपर सब

प्रकारका दान सुवर्ण-दानके समान है, सब

ब्राह्मण ब्रह्मके समान होते हैं और सभी जल

गङ्गाजलके समान हो जाते हैं। ( संक्रान्तिका

कथन-- ) सूर्यकी संक्रान्ति रविवारसे लेकर

शनिवारतक किसी-न-किसी दिन होती है।

इस क्रमसे उस संक्रान्तिके सात भिन्न-भिन्न नाम

होते हैं। यथा - घोरा, ध्वाङ्क्षी, महोदरी, मन्दा,

मन्दाकिनी, युता (मिश्रा) तथा राक्षसी । कौलव,

शकुनि और किंस्तुघ्न करणोंमें सूर्य यदि संक्रमण

करे तो लोग सुखी होते है । गर, वव, वणिक्‌,

विष्टि ओर बालव-इन पाँच करणोंमें यदि सूर्य-

संक्रान्ति बदले तो प्रजा राजाके दोषसे सप्पत्तिके

साथ पीडित होती है। चतुष्पात्‌, तैतिल और

नाग --इन करणोंमें सूर्य यदि संक्रमण करे तो

देशमें दुर्भिक्ष होता है, राजाओंमें संग्राम होता है

तथा पति-पत्नीके जीवनके लिये भी ` संशय

उपस्थित होता है ॥ ६६--७०॥

( रोगकी स्थितिका विचार-- ) जन्म नक्षत्र

या आधान (जन्मसे उन्नीसर्वे) नक्षत्रमें रोग उत्पन्न

हो जाय, तो अधिक क्लेशदायक होता है।

कृत्तिका नक्षत्रम रोग उत्पन्न हो तो नौ दिनतक,

रोहिणीमें उत्पन्न हो तो तीन राततक तथा

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