है अथर्ववेद संहिता भाग-९
जो अमुर समुद्र के मध्य में अति गहरे स्थान में रहते हैं, उन्हें वहाँ से हटाकर, मातृभूमि की स्वाधीनता चाहने
वाले देवगणों को उनके स्थान पर स्थापित करते हैं । ये देवगण योग्य हैं एवं इनकी वहं आवश्यकता है ॥१ ॥
[९ - शत्नुनाशन सूक्त (८) |
[ऋषि- उपरिबध्रव । देवता-बृहस्पति । छन्द-त्रिष्टप् ।]
१७६०. भद्रादधि शरेयः प्रहि बृहस्पतिः पुरएता ते अस्तु ।
अथेममस्या वर आ पृथिव्या आरेशत्रुं कृणुहि सर्ववीरम्॥१॥
हे मनुष्य ! तुम सुख को गौण एवं परम कल्याण को प्रधान मानने वाले मार्ग का अवलम्बन कते । इस
देवमार्गं के मार्गदर्शक बृहस्पति (देवगुरु) के समान ज्ञानी हों । इस पृथ्वी पर श्रेष्ठ वीर पुरुष उत्पन्न हों, जिससे
शत्रु दूर रहें अर्थात् यहाँ शान्ति रहे ॥१ ॥
[१० - स्वस्तिदा पूषा सूक्त (९) ]
[ ऋषि- उपरिवभ्रव । देवता- पूषा । छन्द-विष्टप्, ३ तिपदार्षी गायत्री, ४ अनुष्टुप् ।]
१७६१. प्रपथे पथामजनिष्ट पूषा प्रपथे दिवः प्रपथे पृथिव्याः ।
उभे अभि प्रियतमे सधस्थे आ च परा च चरति प्रजानन् ॥१॥
पृथा देवता, घरुलोके के मार्ग पे अन्तरिक्ष के मार्ग में तथा पृथिवी के मार्ग में प्रकट होते हैं । ये देव दोनों प्रिय
स्थानों में प्राणियों के कर्म के साक्षीरूप होकर विचरते है ॥१ ॥
१७६२. पुषेमा आशा अनु वेद सर्वाः सो अस्माँ अभयतमेन नेषत् ।
स्वस्तिदा आघृणिः सर्ववीरोऽप्रयुच्छन् पुर एतु प्रजानन् ॥२ ॥
ये पोषणकर्ता देव, सब दिशाओं को यथावत् जानते है । वे देव हम सबको उत्तम निर्भयताकेपार्ग से ले
जाते हैं । कल्याण करने वाले, तेजस्वी, बलवान् , वीर, कभी प्रमाद् न करने वाले देव हमारा मार्गदर्शन करते हुए
हम सबको उन्नति के मार्ग पर ले चलें ॥२॥
१७६३. पूषन् तव व्रते वयं न रिष्येम कदा चन। स्तोतारस्त इह स्मसि ॥३॥
हे देव पूषन् ! हप आपके वतानुष्ठान में रहने से कभी नष्ट न हों हम आपका वत धारण कर आपकी स्तुति
करते हुए सदैव घन, पुत्र, मित्र आदि से सप्त्न रहें ॥३ ॥
७६४. परि पृषा परस्ताद्धस्तं दधातु दक्षिणम् । पुनर्नो नष्टमाजतु सं नष्टेन गमेमहि ॥४ ॥
है पोषणकर्ता पृषादेव ! आप अपना दाहिना हाथ (उसका सहारा या अभयदान) हमें प्रदान करें । हमारे जो
साधनादि नष्ट हो गये हैं, हम उन्हें पुनः प्राप्त करने का प्रयास करेंगे । आपकी कृपा से वे हमें प्राप्त हों ॥४ ॥
[११ - सरस्वती सूक्त ( ११०) ]
[ ऋषि- शौनक । देवता- सरस्वती । छन्द-त्रिष्टप् ।]
१७६५. यस्ते स्तनः शशयुर्यों मयोभूर्य: सुम्नयुः सुहवो यः सुदत्रः ।
येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि सरस्वति तमिह धातवे कः ॥९॥
हे सरस्वती देवि ! आपका दिव्य ज्ञानकूपी पय शान्ति देने वाला, सुख देने वाला, मन को पवित्र करने वाला,
पुष्टिदाता एवं प्रार्थनीय है । उस दिव्य पय को हमें भी प्रदान करें ॥१ ॥