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* पुराणं गारुडं वक्ष्ये सारं विष्णुकथाश्रयम् *
[ संक्षिप्त गरुडपुराणाडू
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करनेसे प्राप्त होती है। अर्थात् रविवारकों शरीरमें तैलका
अभ्यङ्ग करनेपर सन्ताप, सोमवारको तैल-अभ्यंगसे कीर्ति,
मंगलवासको तैल-अभ्यड्रसे अल्पायु, बुधवारकों तैल-
अभ्यङ्गसे धन, बृहस्पतिवास्कों ऐसा करनेसे मृत्यु, शुक्रवारको
तैल-अभ्यड्रसे आरोग्य और शनियारकों तैल- अभ्यङ्ग
करनेपर मनुष्यका सम्पूर्ण अभीष्ट पूर्ण होता है। उपवास
करनेवाले ब्रतौसे तथा नाईके द्वारा क्षौरकर्म करानेके पश्चात्
मनुष्यसे तबतक ही लक्ष्मी प्रसन्न रहती हैं, जबतक वह
तैलका स्पर्श नहीं करता है। अतः तैलस्पर्श करनेके पश्चात्
मनुष्यको तत्काल स्नान कर लेना चाहिये। व्रतके दिन तो
तैलस्पर्श नहीं ही करना चाहिये।
स्नान करनेके बाद मनुष्यको यथाविधान पितृगण,
देवगण और मनुष्योंका तर्पण करना चाहिये । नाभिपर्यन्त
जलमे स्थित होकर एकाग्र मनसे पितरॉका आवाहन करना
चाहिवे-
आगच्छन्तु मे पितर॒ इमं गृहन्त्वपोऽञ्जलिम् ॥
है मेरे पितृगण! आप सब इस तीर्थस्थानपर आकर
विराजमान हों और मेरे द्वारा दी जा रही जलाञ्जलिको
स्वोकार करें।
इस प्रकार आवाहन करके आकाश और दक्षिण
दिशामें स्थित पितृगणोंको तीन-तीन जलाञ्जलि प्रदान करे ।
यदि जलसे बाहर निकलकर तर्पण करना हो तो तर्पणकी
विधि जाननेवाले लोर्गोको सुखे और स्वच्छ वस्त्र पहनकर
समूल कुशा्ओंपर तर्पण करना चाहिये पात्र (बर्तन)-में
तर्पण नहीं करना चाहिये ।
तर्पण-कृत्यमें रक्षोगण प्रतिबन्ध न कर सकें, इसके
लिये तर्पण आरम्भ करते समय नाये हाथमें जल लेकर
नैरछत्य कोणमें उसे छोड़ना चाहिये और जल छोड़ते समय
निम्नलिखित मन्त्र बोलना चाहिये--
यदपां कूरमांस्यत्त यदमेध्यं तु किञ्चन॥
अशान्तं मलिनं यच्च॒ तत्सर्वमपगच्छतु ।
(२६३।१३६-१३२)
क्रूरमांसके कारण, अपवित्रताके कारण, अथवा तर्पणके
जलमें अज्ञनवश विद्यमान अशान्तिजनक किसी तत्त्व
या मलिनताके कारण जो कुछ भी प्रतिबन्ध है, वह दूर
हो जाय।
अन्तम तर्पणका संक्षेप (उपसंहार) करते समय तीन
जलाज्जलि निम्नलिखित मन्त्रोंसे देनी चाहिये-
निषिद्धभक्षणाद्यत्तु॒ पापाद्यच्य प्रतिग्रहात् ॥
दुष्कृतं यच्च ये किञिद्राङ्मनःकायकर्मभिः।
पुनातु मे तदिन्द्रस्तु वरुणः सयृहस्पतिः ॥
सविता च भगश्चैव मुनयः सनकादयः।
आब्राह्मस्तप्बपर्यन्तं जगत् तृप्यत्विति च्रुवन् ॥
(२९३ १४६- १३५)
निषिद्ध भक्षणसे, जन्मान्तरीय दुष्कर्मोसे, प्रतिग्रह (दान)
लेनेसे और इस जन्ममें शरीर, वाणौ एवं कर्मसे जो निषिद्ध
आचरण हो गये हैं, उनसे उत्पन्न पापोंके कारण मुझमें जो
अपवित्रता है, उसे दूर करके बृहस्पति, इन्द्र तथा वरुण मुझे
पवित्र करें। सूर्य, यम (देवतायिशेष ), सनकादि ऋषि और
बअहासे लेकर स्तम्ब (अति लघु कौट या तृण) समस्त
संसार-ये सभी मेरे तर्पणसे तृप्त हों।
इस प्रकार पितृतर्पण करके संयमी व्यक्तिको ईर्ष्या, देष
आदिसे रहित होकर ब्रह्म, विष्णु ओर महेश आदि अभीष्ट
देवॉकी पूजा करनी चाहिये । विभिन्न देवतालिङ्गक त्राय,
वैष्णव, रौद्र, सावित्र एवं मैत्रावरुण-मन्त्रोंसे सभी देवताओंको
नमस्कारपूर्वक अर्चा करनी चाहिये। तदनन्तर पुनः
नमस्कारपूर्वक अर्चित देवॉको पृथक्-पृथक् पुष्पाअलियाँ
देनी चाहिये। पुनः सर्वदेवमय भगवान् विष्णु और सूर्यकी
पूजा करनेका विधान हैं। इस पूजामें जो अधिकारी मनुष्य
पुरुषसूकछसे भगवान् विष्णुको पुष्प तथा जल समर्पित करता
है, वह सम्पूर्ण चराचर विश्वकी पूजाको सम्पन्न कर लेता
है। इन देवोंको पूजा अन्य तान्त्रिक मन्त्रोंसे भी कौ जा
सकती है। पूजामें सबसे पहले आराध्यदेव जनार्दनकों
अर्यं प्रदान करना चाहिये और सुगन्धित पदार्थसे उनके
विग्रहका विलेपने करना चाहिये । तत्पश्चात् उन्हें पुष्पाञ्जलि,
धूप, उपहार ओर फलका नैवेद्य समर्पित करना चाहिये ।
जलके मध्य स्नान, जलके द्वारा मार्जन, आचमन,
जलमें तीर्थका अभिमन्त्रण तथा अभमर्षण-सूक्तके द्वारा
मार्जन नित्य तीन बार करना चाहिये। महात्माओंको
स्नानविधिके विषयमे यही अभीष्ट है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और
सैश्यको मन्रसहित स्नान करना चाहिये। शूद्रवर्णकों मौन
होकर नमस्कारपूर्वक स्नाव करना चाहिये! अध्यापन