आचारकाण्ड ]
* स्नान तथा संक्षेपमें संध्या-तर्पणकी विधि *
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ब्रह्मयज्ञ, तर्पण पितृयज्ञ, होम देवयज्ञ, बलिवैश्वदेव
भूतयज्ञ तथा अतिथिका पूजन मनुष्ययज्ञ है। गौओकि
गोष्ठे दस गुना, अग्तिशालामें सौ गुना, सिद्धक्षेत्र-तीर्थ
तथा देवालयोंमें क्रमशः: एक हजार गुना, एक लाख
गुना और एक करोड़ गुना फल इन कर्मोंको करनेसे
प्राप्त होता है। जब ये हौ कर्म भगवान् विष्णुके सान्निध्ये
किये जाते हैं तो इनसे अनन्त गुना फलोकौ प्राप्ति
होती है।
दिनका यथायोग्य पाँच विभाग करके पितृगण, देवगणकी
अचां और मानवके कार्य करने चाहिये। जो मनुष्य अन्नदान
करके सर्वप्रथम ब्राह्मणको भोजन कराकर अपने मित्रजनोंके
साथ स्वयं भोजन करता है, वह देहत्यागके बाद स्वर्गलोकके
सुखका अधिकारी बन जाता है।
मनुष्यको सर्वप्रथम मधुर, मध्यभागे नमकौन और
अम्लसे युक्त पदार्थ, उसके बाद कड़वा, तीता तथा करैला
भोजन करना चाहिये। भोजनके अनन्तर दुग्धपान करना
चाहिये। रातमें शाक तथा कन्दादिक पदार्थोंकों अधिक नहीं
खाना चाहिये। एक ही प्रकारके रसमें आसक्ति अच्छी नहीं
होती है। ह
ब्राह्मणका अन्न अमृतके समान, क्षत्रियका अन्न दुग्धके
समान, वैश्यका अन्न अन्नके समान और शूद्रका अन्न रके
समान होता है। जो अमावास्याका ब्रत एक वर्षतक करता
है, उसके यहाँ ऐश्वर्य और लक्ष्मीका (अविचलरूपसे)
निवास होता है। द्विजातिके उदरभागमें गार्हपत्यानि, पृष्ठभागे
दक्षिणाग्नि, मुखमें आहवनीयाग्नि, पूर्वमें सत्याग्नि और
मस्तकमें सर्वाग्निका वास रहता है। जो इन पञ्चाग्नियोको
जान लेता है उसको आहिताग्नि कहा जाता है। शरीरको
जल, चन्द्र तथा विविध प्रकारके अन्नके द्वारा साध्य माना
गया है। इस शरीरका उपभोग करनेवाले प्राण अग्नि और
सूर्य हैं। ये तोनों पृथक्-पृथक् तीन रूपोंमें भी अवस्थित
रहकर एक ही हैं।
(भोजनके समय यह भावना करनी चाहिये कि)
पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायुतत्त्वसे युक्त इस मेरे
स्थूल शरीरकौ पुष्टिके लिये प्रयुक्त अन्न शक्ति-सडयके
लिये होता है। शरीरमें पहुँचकर जब यह अन्न भूमि, जल,
अग्नि और वायुतत्वके रूपमे परिणत हो जाता है तो
चाहिये। तदनन्तर एकाग्रचित्त होकर इतिहासका श्रवण
करना चाहिये। इतिहास और पुराणादिकी कथाओंके द्वारा
मनुष्यको दिनके छठे और सातवें भागका समय व्यतीत
करना चाहिये। तत्पश्चात् स्नान करके पश्चिम दिशाकी ओर
मुख करके सायंकालोन संध्योपासन करना चाहिये।
है ब्राह्मणदेव! मेरे द्वारा कहे गये इस विधानके
अनुसार अपने कर्तव्योंका पालन करना चाहिये। जो
मनुष्य इस सदाचारके अध्यायका पाठ करता है अथवा
अपने पुरोहित आदिके द्वारा इसका श्रवण करता है, वह
निश्चित ही अपनी मृत्युके पश्चात् स्वर्गलोकको जाता है। हे
द्विज! इन सभी सदाचार एवं धर्मका पालन करनेवाला
अधिकारी मनुष्य केशव ( साक्षात् विष्णु) हौ माना गया है ।
(अध्याय २६१३)
स्नान तथा संक्षेपमें संध्या-तर्पणकी विधिः
ब्रह्मजीने कहा--अब मैं स्नानकौ विधि कहता हूँ, भूमिपर रखना चाहिये ।
क्योकि सभी क्रियाएँ स्नानमूलक हैं. अर्थात् स्तानके बिना तदनन्तर विदान् व्यक्ति एकत्र किये हुए मिट्टी और
कोई भी क्रिया सफल नहीं हो सकती । स्नानार्धीं व्यक्छिको गोनयको तीन भारगोमिं विभक्त करके मिट्टी और जलके द्वारा
स्नानके पूर्व मिट्टी, गोमय, तिल, कुश, सुगन्धित पुष्प- दोनों चैर तथा दोनों हाथका प्रक्षालन करे। बायें कंधेपर
ये सभी द्रव्य एकत्र कर लेना चाहिये। गन्ध आदि यज्ञोपवीत रखकर शिखाबन्धनपूर्वक मौन होकर आचमन
स्नानोपयोगी पदार्थोंकों जलके समीप स्वच्छ स्थान- करे। "ॐ उरं हि राजा'०' इत्यादि मन्त्रोंसे दक्षिणभागमें
१-इस अध्यायमें मन्जोंके प्रशौकमात्र दिये गये हैं। जिज्ञासु विभिन्न मन्रसंहिताओँसे मन्त्रोंकों जात लें।
२-ॐ उरे हि राजा यरुणक्षकार सूर्याय पन्थानमन्वेत बाउ। प्रतिधाता च वक्तारस्ताइदयाविषश्षित्। नमोऽग्न्यरुणाया भिष्टुतोवरुणस्थ पाश:।
हला नम:॥ {२६४।६}