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३२२ * पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्‌ + [ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडु

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विधान बतलाकर वहीं अन्तर्हित हो गये। मनुष्यको सूर्यसे बड़े-बड़े पापोंका विनाशक, बाल-वृद्धिकास्क तथा परम

नीरोगता, अभिसे धन, ईश्वर (शिवजी) से ज्ञान और भगवान्‌ हितकारी है। जो मनुष्य अनन्यचित्त होकर इस ब्रत-विधानको

जनार्दनसे मोक्षकी अभिलाषा करनी चाहिये'। यह व्रत सुनता है, उसे भी सिद्धि प्राप्त होती हैः । (अध्याय ५२)

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अचलासप्तमी °-त्रत-कथा तथा त्रत-विधि

राजा युधिष्ठिरने पृष्ठा-- भगवन्‌ ! आपने सभी उत्तम

फल्मेंको देनेवाले माघस्नानका विधान बतलाया था, परंतु जो

प्रातःकाल स्नान करनेमें समर्थ न हो तो वह क्या करे ? खयां

अति सुकुमारी होती हैं, वे किस प्रकार माघस्नानका कष्ट सहन

कर सकती हैं ? इसलिये आप कोई ऐसा उपाय बतायें कि

थोड़ेसे परिश्रमसे भी नियो रूप, सौभाग्य, संतान और

अनन्त पुण्य प्राप्त हो जाय ।

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले--महाराज ! मैं अचला-

सप्तमीका अत्यन्त गोपनीय विधान आपको बतलाता हूँ,

जिसके करनेसे सब उत्तम फल प्राप्त हो जाते हैं। इस

सम्बन्धमें आप एक कथा सुन्नें--

मगध देशमें अति रूपवती इन्दुमती नामकी एक वेश्या

रहती थी। एक दिन वह वेश्या प्रातःकाल बैठी-बैठी संसारकी

अनवस्थिति (नश्चरता)का इस प्रकार चिन्तन करने

लगी--देखो ! यह विषयरूपी संसार-सागर कैसा भयंकर है,

जिसमें इवते हुए जीव जन्म-मृत्यु-जरा आदिसे तथा

जल-जन्तुओसे पीड़ित होते हुए भी किसी प्रकार पार उतर नहीं

पाते। ब्रह्मजीके द्वारा निर्मित यह प्राणिसमुदाय अपने किये

गये कर्मरूपी ईंघनसे एवं कालरूपी अग्निसे दग्घ कर दिया

जाता है। प्राणियोकि जो धर्म, अर्थ, कामसे रहित दिन व्यतीत

होते हैं, फिर ये कहाँ वापस आते हैं ? जिस दिन खान, दान,

तप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पण आदि सत्कर्म नहीं किया जाता,

वह दिन व्यर्थ है। पुत्र, खी, घर, क्षेत्र तथा घन आदिकी

चिन्तामें सारी आयु बीत जाती है और मृत्यु आकर घर

दबोचती है।

इस प्रकार कुछ निर्विण्ण--उद्विग्र होकर सोचती-

विचारती हुई वह इन्दुमती वेश्या महर्षि वसिष्ठके आश्रममें गयी

और उन्हें प्रणामकर हाथ जोड़कर कहने लगी-- “महाराज !

मैने न तो कभी कोई दान दिया, न जप, तप, व्रत, उपवास

आदि सत्कर्मोंका अनुष्ठान किया और न शिव, विष्णु आदि

किन्हीं देवताओंकी आराधना की, अब मैं इस भयैकर संसारसे

भयभीत होकर आपकी शरण आयी हूँ, आप मुझे कोई ऐसा

त्रत बतलायें, जिससे मेरा उद्धार हो जाय।'

चसिष्ठजी बोले--“वरनने ! तुम माघ मासके शुक्ल

पक्षकी सप्तमीको खान करो, जिससे रूप, सौभाग्य और

सद्रति आदि सभी फल प्राप्त होते हैं। षष्ठीके दिन एक यार

भोजनकर सप्तमीको प्रातःकाल ही ऐसे नदीतर अथवा

जलाशयपर जाकर दीपदान और स्नान करो, जिसके जलको

किसीनि ख्नानकर हिलाया न हो, क्योकि जल मलक प्रक्षालित

कर देता है । बादमे यथाशक्ति दान भी करो । इससे तुम्हारा

कल्याण होगा ।' वसिष्ठजीका ऐसा कचन सुनकर इन्दुमती

अपने घर वापस लौट आयी और उनके द्वारा बतायी गयी

विधिके अनुसार उसने खान-ध्यान आदि कर्मोंकों सम्पन्न

किया। सप्तमीके स्रानके प्रभावसे बहुत दिनतक सांसारिक

सुखोंका उपभोग करती हुई वह देह-त्यागके पश्चात्‌ देवराज

इन्द्रकी सभी अप्सराओमें प्रधान नायिकाके पदपर अधिष्ठित

हई । यह अचलासप्तमी सम्पूर्ण पापोंका प्रशमन करनेवाली

तथा सुख-सौमाम्यकी वुद्धि केवाली है ।

राजा युधिष्ठिरने पृछठः-- भगवन्‌ ! अचलासप्तमीका

माहात्य तो आपने बतलाया, कृपाकर अब स्नानका विधान

१-अतेष्य = भास्करदिच्छेद्धनमिच्केदुलारानात्‌ । शैकराज्ड्जमिच्छेसु गतिमिष्फेजनादनात्‌ ॥ (उत्तरपर्व ५२। ३९)

२-भविष्यपुगाणच्त यह अध्याय मत्त्यपुराण (५६८) से प्रायः मिलता है ।

३-यह सप्तमौ पुराणोंमें रथ, सूर्य, भानु, अर्क, महती, पु्रसप्तमी आदि अनेक नामोंसे विख्यात है और अनेक पुराणोमिं उन-उन नामोंसे

अलग-अलग विधियां निर्दिष्ट हैं, जिनसे सभी अभिलाफाएँ पुरी होती हैं।

3-पुराणोंका परस्पर घतिष्ठ सम्बन्ध है। माचलनानकते विस्तृत विधि पद्मपुराणके उत्तरखष्ड एवं वायुपुराणे प्राप्त होती है । इनमें बड़ी सुन्दर

एवं ओह कथाएँ हैं।

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