सिद्धिके लिये परमेश्वरी शरण जाय। आसन,
शव्या, सवारी, स्त्री, संतान ओर कमण्डलु--ये
वस्तुएँ अपनी ही हों, तभी अपने लिये शुद्ध
मानी गयी हैं; दूसरोंकी उपर्युक्त वस्तु अपने
लिये शुद्ध नहीं होतीं। राह चलते समय यदि
सामनेसे कोई ऐसा पुरुष आ जाय, जो भारसे
लदा हुआ कष्ट पा रहा हो, तो स्ववं हटकर उसे
जानेके लिये मार्ग दे देना चाहिये। इसी प्रकार
गर्भिणी स्त्री तथा गुरुजनोंको भी मार्ग देना
चाहिये॥ १२--१४॥
उदय और अस्तके समय सूर्यकी ओर न
देखे। जल्पे भी उनके प्रतिविम्बकी ओर दृष्टिपात
न करे। नंगी स्त्री, कुआँ, हत्याके स्थान ओर
पापिर्योको न देखे। कपास (रुई), हड्डी, भस्म
तथा घृणित वस्तुओंको न लघि । दूसरेके अन्तःपुर
और खजानाघरमे प्रवेश न करे। दूसरेके दूतका
काम न करे। टूटी-फूटी नाव, वृक्ष और पर्वतपर्
न चढ़े। अर्थ, गृह और शस्त्रोकि विषयमे
कौतूहल रखे । ढेला फोडुने, तिनके तोडने और
नख चबानेवाला मनुष्य नष्ट हो जाता है। मुख
आदि अड्लरोंको न बजावे। रातको दीपक लिये
बिना कहीं न जाय । दरवाजेके सिवा ओर किसी
मार्गसे घरमे प्रवेश न करे । मुँहका रंग न बिगाड़े।
किसीकी बातचीत बाधा न डाले तथा अपने
वस्त्रको दूसरेके वस्त्रसे न बदले। "कल्याण हो,
कल्याण हो'--यही बात मंहसे निकाले; कभी
किसीके अनिष्ट होनेकी बात न कहे। पलाशके
आसनको व्यवहारमें न लावे। देवता आदिकी
छायासे हटकर चले ॥ १५--२० ॥
दो पूज्य पुरुषोंके बीचसे होकर न निकले।
जूठे मुँह रहकर तारा आदिकी ओर दृष्टि न डाले ।
एक नदीमें जाकर दूसरी नदीका नाम न ले।
दोनों हाथोंसे शरीर न खुजलावे। किसी नदीपर
पहुँचनेके बाद देवता और पितरोंका तर्पण किये
बिना उसे पार न करे। जलमें मल आदि न फेंके ।
नंगा होकर न नहाये। योगक्षेमके लिये परमात्माकी
शरणमें जाय। मालाको अपने हाथसे न हटाये।
गदहे आदिकी धूलसे बचे। नीच पुरुषोंकों कष्टमें
देखकर कभी उनका उपहास न करे। उनके साथ
अनुपयुक्त स्थानपर निवास न करे। वैद्य, राजा
और नदीसे हीन देशमें न रहे। जहाँके स्वामी
म्लेच्छ, स्त्री तथा बहुत-से मनुष्य हों, उस देशमें
भी न निवास करे। रजस्वला आदि तथा पतितोंके
साथ बात न करे। सदा भगवान् विष्णुका स्मरण
करे। मुँहके ढके बिना न जोरसे हँसे, न जँभाई
ले और न छींके ही ॥ २१--२५॥
विद्वान् पुरुष स्वामीके तथा अपने अपमानकी
बातको गुप्त रखे । इन्द्रियोंक सर्वथा अनुकूल न
चले--उन्हें अपने वशमें किये रहे । मल-मूत्रके
वेगको न रोके। परशुरामजी! छोटे-से भी रोग या
शत्रुकौ उपेक्षा न करे। सड़क लाँघकर अनेके
बाद सदा आचमन करे। जल और अग्निको
धारण न करे। कल्याणमय पृज्य पुरुषके प्रति
कभी हुंकार न करे। चैरको चैरसे न दबावे।
प्रत्यक्ष या परोक्षे किसीकी निन्दा न करे। वेद्,
शास्त्र, राजा, ऋषि और देवताकी निन्दा करना
छोड़ दे । स्थ्रियोंके प्रति ईर्ष्या रखे तथा उनका
कभी विश्वास भी न करे। धर्मका श्रवण तथा
देवताओंसे प्रेम करे। प्रतिदिन धर्म आदिका
अनुष्ठान करे । जन्म-नक्षत्रके दिन चन्द्रमा, ब्राह्मण
तथा देवता आदिकी पूजा करे । ष्ठी, अष्टमी और
चतुर्दशीको तेल या उबटन न लगावे। घरसे दूर
जाकर मल-मूत्रका त्याग करे। उत्तम पुरुषोके
साथ कभी वैर-विरोध न करे॥ २६--३१॥
इस ग्रकार आदि आग्नेय महापुराण्मे “माचारका वर्णन” नामक
एक सौ प्रचप्रनर्काँ अध्याय पूरा हुआ॥ १५५ ॥
(०/५