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आ० ११ ]

सदाचारों और शान्त ब्रह्मण धर्मके गुप्त-से-गुप्त रहस्यको

जैसा यथार्थरूपसे जानते हैं, दूसरे लोग वैसा नहीं

जानते ॥ ४ ॥

नारदजीने कहा-- युधिष्टिर ! अजन्मा भगवान्‌ ही

समस्त धपोकि मूल कारण हैं। वही प्रभु चराचर जगतके

कल्याणके लिये धर्म और दक्षपुत्री मूर्तिके द्वारा अपने

अंशसे अवतीर्ण होकर बदरिकाश्रमे तपस्या कर रहे है ।

उन नारायण भगवान्‌को नमस्कार करके उन्हींके मुखसे

सुने हुए सनातनधर्मका मैं वर्णन करता हूँ॥ ५-६॥

कर्म धर्मके मूल है ॥ ७॥

युधिष्ठिर ! धर्मके ये तीस लक्षण शाख्त्रोंमें कहे गये

है--सत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, उचित-

अनुचितका विचार, मनका संयम, इन्द्रियॉका संयम,

अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, सन्तोष,

समदर्शो महात्माओंकी सेवा, धीरि-र्धरि सांसारिक भोंगोंकी

चेष्टासे निवृत्ति, मनुष्यके अभिमानपूर्णं प्रयत्तॉका फल

उलरा ही होता है--ऐसा विचार, मौन, आत्मचिन्तन,

प्राणियॉक्रो अन्न आदिका यथायोग्य विभाजन, उनमें और

विशेष करके मनुष्योमें अपने आत्मा तथा इष्टदेवका भाव,

संतोंके परम आश्रय भगवान्‌ श्रीकृष्णके नाम-गुण-लीला

आदिका श्रवण, कीर्तन, स्मरण, उनकी सेवा, पूजा और

नमस्कार; उनके प्रति दास्य, सख्य और आत्म-समर्पण--

यह तीस प्रकारका आचरण सभी मनुष्योंका परम

धर्म है। इसके पालनसे सर्वात्मा भगवान्‌ प्रसन्न

होते हैं॥ ८-१२ ॥

धर्मराज ! जिनके वंशमें अखण्डरूपसे संस्कार होते

आये हैं और जिन्हें ब्रह्माजीने संस्कारके योग्य स्वीकार

किया है, उन्हें द्विज कहते हैं। जन्म और कर्मसे शुद्ध

द्विजोंके लिये यज्ञ, अध्ययन, दान और ब्रह्मचर्य आदि

आश्रमोके विशेष कर्मोंका त्रिधान है॥ १३॥ अध्ययन,

* सप्तम स्कन्ध *

ऑफ औ-औ की मौ क के के के की के तौ क की के # क कै कै # कह कह की मै नि हि कहे तह कही हि तह सौ मि की हे कही फीकी कहे कहे तह तह

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अध्यापन, दान लेना, दान देना और यज्ञ करना, यज्ञ

कराना--ये छः कर्म ब्राह्मणके है । क्षत्रियकों दान नहीं

लेना चाहिये। प्रजाकी रक्षा करनेवाले क्षत्रियका

जीवन-निर्वाह ब्राह्मणके सिवा और सबसे यथायोग्य कर

तथा दण्ड (जुर्माना) आदिके द्वारा होता है॥ १४ ॥

वैश्यको सर्वदा ब्राह्मण वेशका अनुयायी रहकर गोरक्षा,

कृषि एवं व्यापारके द्वारा अपनी जीविका चलानी चाहिये ।

शुद्रका धर्म है द्विजातियोंकी सेवा । उसकी जीविकाका

निर्वाह उसका स्वामी करता है ॥ १५॥ ब्राह्मणके

जीवन-निर्वाहके साधन चार प्रकारके हैं--वार्ता'

शालीनः यायावरः और शिलोज्छन । इनमेंसे

पीछे-पीछेकी वृत्तियाँ अपेक्षाकृत श्रेष्ठ हैं॥ १६॥

तिघ्रवर्णका पुरुष निना आपत्तिकालके उत्तम वर्णकी

वृत्तियोंका अवलम्बन न करे क्षत्रिय दान लेना छोड़कर

ब्राह्मणको शेष पाँचों वृत्तियोंका अवलम्बन ले सकता है।

आपत्तिकालमें सभी सब वृत्तियॉंको स्वीकार कर सकते

हैं॥ १७॥ ऋत, अपृत, मृत, प्रमृत और

सत्यानृत--इनमेंसे किसी भी वृत्तिका आश्रय ले, परन्तु

श्वानवृत्तिका अवलम्बन कभी न करे ॥ १८ ॥ बाजारमें पड़े

हुए अन्न (उच्छ) तथा खेतोंमें पड़े हुए अन्न (शिल) को

वीनकर 'शिलोज्छ' वृत्तिसे जीविका-निर्वाह करना “'ऋत'

है। बिना माँगे जो कुछ मिल जाय, उसी अयाचित

(शालोन) वृत्तिके द्वारा जीवन-निर्वाह करना "अमृत" है ।

नित्य माँगिकर लाना अर्थात्‌ "यायावर" वृत्तिके द्वारा

जोबन-यापन करना 'मृत' है। कृषि आदिके द्वारा "वार्ता

वृत्तिसे जीजन-निर्वाह करना 'प्रमृत' है॥ १९ ॥ वाणिज्य

“सत्यानृत' है और निम्नवर्णकी सेवा करना श्वानवृत्ति है।

ब्राह्मण और क्षत्रियको इस अन्तिम निन्दित वृत्तिका कभी

आश्रय नहीं लेना चाहिये। क्योंकि ब्राह्मण सर्ववेदमय

और क्षत्रिय (राजा) सर्वदेवमय है ॥ २० ॥

शम, दम, तप, शौच, सन्तोष, क्षमा, सरलता, ज्ञान,

दया, भगवत्परायणता और सत्य--ये ब्राह्मणके लक्षण

हैं॥ २१॥ युद्धमें उत्साह, वीरता, धीरता, तेजस्विता,

१. यज्ञाध्यवनादि ककर धन लेना। २. बिना मागि जो कुछ पिल जाय, उसीमें निर्वाह करना । ३, निव्दप्रति धान्यादि भवौ] लाना।

४. किसानके खेत काटकर अन्न घरको ले आनेपर पृथ्वीपर खे कण पढ़े रह जाते हैं, उन्हें 'शिल' तथा बाजाएमें पड़े हुए अन्नके दामोको 'उज्छ'

कहते हैं। उन शिल और उन्छोंकों बोर अपया निर्वाह करना 'शिलोज्छान' यूति है।

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