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उत्तरपर्व ]
* महानवमी-(विजयादझमी- ) त्रत +
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मुष्डमालिनी चामुण्डाका पूजन अवश्य करना चाहिये। सभी
कल्यो और मन्वन्तरोमें देव, दैत्य आदि अनेक प्रकास्के
उपचायोसे नवमी तिथिको भगवतीकी पूजा किया करते हैं और
तीनों लोकॉमें अबतार लेकर भगवती मर्यादाक्ा पालन करती
रहती हैं। राजन् ! यही पराम्बा जगन्माता भगवती यशोदाके
गर्भसे उत्पन्न हुई थीं और वे कंसके मस्तकपर पैर रखकर
आकाशम चली गयीं और फिर विश्ध्याचलमें स्थापित हुईं,
तभीसे यह पूजा प्रवर्तित हुई।
अगवतीका यह उत्सव पहलेसे ही प्रसिद्ध था, परैतु सभी
प्राणियोकि उपकारके लिये तथा सभी विघ्न-बाधाओंकी
शाक्षिके लिये ही मैंने अपनी बहनके रूपमे भगवती
विश्यवासिनी देवीकी महिमाका विशेषरूपसे प्रचार किया।
विन्ध्यवासिनी भगवतीके स्थानमें नव रात्रि, तीन रात्रि, एक रात्रि
उपवास या अयाचितत्रत अथवा नक्तत्रत कर अनेक प्रकारके
उपचारेसे भगवतीकी आराधना करनी चाहिये। ग्राम-गम,
नगर-नगर और घर-घरमें सभी लोगोंको सान कर प्रसन्नचित्त
होकर भक्तिपूर्वक ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, खी आदि
सभीको भगवतीकी पूजा करनी चाहिये । विशेषकर राजाओंको
तो यह पूजन अवश्य करना चाहिये।
विजयकी इच्छा रखनेवाले राजाको प्रतिपदासे अष्टमी-
पर्यन्त॒लोहाभिहारिक कर्म (अखन-शख्न-पूजन) करना
चाहिये । सर्वप्रथम पूर्वोत्तर द्ालवाली भूमिमें नौ अथवा सात
हाथ लम्बा-चौड़ा, पताकाओंसे सुसख्ित एक मण्डप बनाना
चाहिये । उसमें अग्निकोणे तीन मेखला और पीपलके समान
योनिसे युक्त एक अति सुन्दर एक हाथके कुष्डकी रचना करनी
चाहिये । राजाके चिह-- छत्र, चामर, सिंहासन, अश्व, ध्वजा,
पताका आदि और सभी प्रकारके अख््र-शख्त्र, मण्डपमें लाकर
रखे । उन सबका अधिवासन करे । इसके अनन्तर ब्राह्मणको
चाहिये कि यह स्तरानकर् श्वेत वस्र धारणकर मण्डपादिकी पूजा
करे ओर फिर ऑक्प्रप्पूर्वक राजचिद्ोकि निर्दिष्ट मन्त्रोदारा घृतसे
संयुक्त पायससे हवन-कर्म करे । पूर्वकालमे बहुत हौ बलवान्,
शक्तिशाली लोह नामका एकं दैत्य पैदा हुआ धा । उसको
देवताओनि मारकर खण्ड -खण्ड कर पृथ्वीपर गिरा दिया । वही
दैत्य आज लोहाके रूपमे दिखायी पड़ता है । उसीके अड्जोंसे
ही विभिन्न प्रकारके लोहेकी उत्पत्ति हुई है । इसलिये उसी
समयसे लोहाभिहारिक कर्म राजाओको विजय प्राप्त करनेमें
सहायक सिद्ध हुआ, ऐसा ऋषियोनि बतलाया है। हवनका
बचा हुआ शेष पायस हाथी और घोड़ोंको खिलाकर उनको
अलैकृत कर माङ्गलिक घोष करते हुए रक्षकोकि साथ
समारोहपूर्वक नगरमे घुमाना चाहिये । राजाको भी प्रतिदिन
खानकर पितरों और देवताओंकी पूजा करनेके बाद
राजचिह्रोंकी भी भलीभाँति पूजा करनी चाहिये । इससे गजाको
विजय, कीर्ति, आयु, यश तथा बलकी प्राप्ति होती है।
इस प्रकार लोहाभिहारिक कर्म करनेके अनन्तर अष्टमीके
दिन पूर्वाह्रमें ्रान कर नियमपूर्वक सुवर्ण, चाँदी, पीपल, तौ,
मृत्तिका, पाषाण, काष्ठ आदिकी दुर्गाकी सुन्दर मूर्ति बनाकर
उत्तम सुसज्वित स्थानके बीच सिंहासनके ऊपर स्थापित करे ।
कुंकुम, चन्दन, सिन्दूर आदिसे उस मूर्तिको चर्चित कर कमल
आदि पुष्प, धूप, दीप तथा नैवेध्ध आदिसे अनेक बाजे-गाजेके
साथ उनका पूजन करना चाहिये। यन्दीजन स्तुति करें । बहुतसे
लोग छत्र-चामर आदि राजचिह लेकर चारो ओर खड़े होकर
स्थित रहें। दीक्षायुक्त राजा पुरोहितके साथ बिल्वपत्रोंसे
भगवतीकी इस मन्त्रसे पूजा करें--
जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाह्म स्वधा नमोऽस्तु ते ॥
अमूततोद्धवः श्रीवृक्षो महादेवीभ्रियः सदा ।
किल्वपत्रं प्रयच्छामि पवित्र ते सुरेश्वरि ॥
(उत्तरपर्व १३८ | ८६-८७)
इस प्रकार पूजनकर उसी दिनसे द्रोणपुष्पी (गृमा) से
पूजा करनी चाहिये । असुरोके साथ युद्ध करनेसे जो क्षति
भगवतीके शरीरकों हुई उसकी पूर्ति द्रोणपुष्पीसे ही हुई।
इसलिये द्रोणपुष्पी भगवतीको अत्यन्त प्रिय है। फिर शत्रुओंके
वधके लिये खङ्गको प्रणामकर सुभिक्ष, राज्य और अपने
विजयकी प्राप्ति-हेतु भगवतीसे प्रार्थना करनी चाहिये और
उनका ध्यान तथा इस स्तुतिका पाठ करना चाहिये--
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्रयम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥
ककुमेन समालब्धे चन्दनेन विलेपिते ।
विल्यपत्रकृतामाले दुर्गेऽहं शरणी गतः ॥
(उपर्य १३८ ॥ ९३-९४)