३७८
न पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् [
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडू
मासमे व्रत पूरा हो जानेपर उद्यापन करे । अपनी राक्तिकि
अनुसार सुवर्णका नक्षत्रपुरुष बनाकर उसे अलंकृत करे, एक
उत्तम शाय्यापर प्रतिमा स्थापित करे और ब्राह्मण-दम्पतिको
काय्यापर बैठाकर वस््ाभूषण आदिसे उनका पूजन कर
सप्तथान्य, सवत्सा गौ, छतरी, जूता, घृतपात्र और
दक्षिणासहित वह नक्षत्रपुरुषकी प्रतिमा उन्हे दान कर दै ।
श्रद्धपूर्वक इस ब्रतके करनेसे सर्वाज्जसुन्दर रूप, मनकी
प्रसन्नता, आरोग्य, उत्तम संतान, मधुर वाणी और
जन्म-जन्मान्तरतक अखण्ड ऐश्वर्य प्राप्त होता है और सभी पाप
निवृत्त हो जाते हैं। इतनी कथा कहकर भगवान् श्रीकृष्ण
बोले--'महाराज ! इस प्रकार नक्षत्रपुरुष-त्रतका विधान
वसिष्ठजीने अरुन्धतीको बतलाया। वही मैने आपको सुनाया ।
जो इस विधिसे नक्षत्ररूप भगवानका पूजन करते है, वे
अवय ही उत्तम रूप पाते है ॥
राजा युधिष्ठिरने पुनः पृष्ा-- भगवन् ! रिवभक्तरके
कल्याणके ल्यि आप दौवनक्षत्रपुरुष-त्रतका विधान बताये ।
भगवान् श्रीकृष्णने कहा -- महाराज ! दौवनकत्र-
पुरुष-अतके दिन भगवान् रौकरके अङ्गका पूजन और उपवास
अथवा नक्तवत करना चाहिये । फाल्गुन मासके शुक्त पक्षमें
जब हस्त नक्षत्र हो, उस दिनसे दौवनक्षत्रपुरुष-त्रतका नियम
ग्रहण करना चाहिये और रातमे भगवान् शिवका पूजन करना
चाहिये। हस्त आदि सत्ताईस नक्षत्रोमें भगवान् झकसके
सत्ताईस नामोंसे उनके चरणसे लेकर सिरतककी क्रमदाः
अङ्ग-पूजा करनी चाहिये । रात्रिके समय तैल-क्षाररहित भोजन
करे। प्रतिनक्षत्रमें सेरभर शालि-चावल और चघूतपात्र
ब्राह्मणको प्रदान करे। दो नक्षत्र एक दिन हो जायें तो दो
अज्जोंका दो नामोंसे एक ही दिन पूजन करे । इस प्रकार ब्रतकर
पारणामें ब्राह्मणोको भोजन, दक्षिणा आदिसे संतुष्ट करना
चाहिये। सुवर्णकी शिव-पार्यतीकी प्रतिमा बनाकर उसे उत्तम
हाय्यापर स्थापित करे। बादमें सभी उपचा्ोसे पूजनकर
कपि गौ, बर्तन, छत्र, चामर, दर्पण, जूता, वस्र, आभूषण,
अनुलेपन आदिसहित वह प्रतिमा ब्राह्मणक निवेदित कर दे।
बादमें प्रदक्षिणा कर विसर्जन करें और शय्या, गौ आदि सब
सामग्री ब्राह्मणके घर पहुँचा दे। महाराज ! दुइशील, दाम्भिक,
कुतार्किक, निन्दक, स्त्रेभी आदिको यह व्रत नहीं बताना
चाहिये। इन्त-स्वभाव, सद्गुणी, शिवभक्त इस व्रतके
अधिकारी हैं। इस ब्रतके करनेसे महापातक भी नियृत्त हो जाते
हैं। जो खी पतिकी आज्ञा प्राप्त कर इस ब्रतको सम्पन्न करती है,
उसे कभी इष्ट-वियोग नहीं होता । जो इस ब्रतके माहात्म्यको
पढ़ता है अथवा श्रवण करता है उसके भी पितरोंका नस्कसे
उद्धार हो जाता है।
(अध्याय १०८-१०९)
भरभ्नत्रतकी प्रायश्चित्त-विधि तथा पण्यस्त्री-ब्रत
राजा युधिष्ठिरने पूछा--भगवन् ! यदि मनुष्य
नक्षत्रपुरुष-बतक्य ग्रहण कर उसे न कर सके तो किस कर्मके
द्वारा कह चीर्ण (कृत) माना जाता है, इसे बतलायें।
भगवान् श्रीकृष्ण खोले--राजन्! यह अत्यन्त
रहस्यपूर्ण बात है। आपके आग्रहसे मैं इसे बतत रहा हूँ।
अनेक प्रकारके उपद्रव, मद, मोह या असावधानी आदिसे
यदि ब्रत-भग्न हो जायै तो उनकी पूर्णताके लिये यह व्रत करना
चाहिये । इस ब्रतके करनेसे खण्डित-बत पूर्ण फल देनेवाले हो
जाते हैं, इसमें संदेह नहीं। जिस देवी-देवताका चत भग्र हो
जाय, उसकी सुवर्णं अधवा चाँदीकी प्रतिमा बनाकर उस
ब्रतके दिन ब्राह्मणको बुल्क्कर प्रतिमाकों पञ्चामृतसे खान
कराये, बाद जलूपूर्ण कछशके ऊपर प्रतिमाको प्रतिष्ठितकर
गन्ध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप, वस्र, आभूषण तथा नैवे
आदिसे उनका पूजन करे । अनन्तर देवताके उद्देशयसे
नापमन््र (ॐ अमुक देवाय नमः) द्वार अर्घ्य प्रदान करे
तथा फिर ब्रतकी पूर्णता एवं ब्रतभङ्ग-दोषकी निवृत्तिके स्मि
इस प्रकार क्षमा-प्ार्धना करे और भगवानकों करण ग्रहण
करे--
चव चः॥
(उत्तरपर्श ९१०} १३--१५)
तात्पर्य यह है कि प्रभो ! मैं आपकी शरण हूँ, मुझपर